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________________ १४० भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ खड्गासन प्रतिमा है । उनके ऊपर भी कोष्ठकमें पद्मासन प्रतिमाएँ उत्कीर्ण हैं । भामण्डलका अंकन अत्यन्त कलापूर्ण है । अधोभागमें दोनों ओर दो-दो यक्ष-यक्षिणी हैं। शीर्ष भागमें दोनों ओर पुष्पमाल लिये आकाशचारी देव हैं। छत्रके ऊपर कई मूर्तियाँ हैं जो खण्डित हैं । 1 अम्बिका-६ फुट ऊँचे और ३ फुट चौड़े एक शिलाफलकपर अम्बिकाकी चतुर्भुजी मूर्ति है । किन्तु इसकी चारों भुजाएँ खण्डित हैं। देवी रत्नाभरणोंसे अलंकृत है । सिरपर स्वर्ण किरीट, गलेमें अक्षमाला, रत्नहार, कटिपर मेखला है । कानोंमें कुण्डल और भुजाओंमें केयूर हैं। सिरके पीछे अलंकृत प्रभामण्डल है। इस मूर्तिका अलंकरण कलापूर्ण है। इसकी एक विशेषता और है । इस फलकमें चौबीस यक्ष-यक्षणियाँ बनी हुई हैं और उनके नाम भी दिये हैं। इसके अतिरिक्त इधरउधर ८ खड्गासन प्रतिमाएँ बनी हुई हैं । ५ प्रतिमाएँ उपरिभाग में भी अंकित हैं, जिनमें २ खड्गासन और ३ पद्मासन हैं । सामान्यतः तीर्थंकर प्रतिमाओंके केश कुन्तल घुँघराले और छोटे होते हैं । उनके जटा एवं जटाजूट नहीं होते । किन्तु भगवान् ऋषभदेवकी कुछ प्रतिमाओंमें इस प्रकार के जटाजूट अथवा जटा देखने में आती है । यद्यपि तीर्थंकरोंके बाल नहीं बढ़ते, किन्तु ऋषभदेवके तपस्यारत रूपका वर्णन करते हुए कुछ आचार्योंने उन्हें जटायुक्त बताया है । आचार्य जिनसेन कृत हरिवंश पुराण में इस प्रकार उल्लेख है - सप्रलम्बजटाभारभ्राजिष्णुजिष्णुराबभौ । रूढप्रारोहशाखाग्रो यथा न्यग्रोधपादपः ||९| २०४ || अर्थात् लम्बी-लम्बी जटाओंके भारसे सुशोभित आदि जिनेन्द्र उस समय ऐसे वट-वृक्ष समान सुशोभित हो रहे थे, जिसकी शाखाओंसे पाये लटक रहे हों । इसी प्रकार आचार्य रविषेण पद्मपुराणमें वर्णन करते हैंवातोद्धृता जटास्तस्य रेजुराकुलमूर्तयः । धूम इव सद्ध्यान- वह्निसक्तस्य कर्मणः ।। ३ ।२८८।। अर्थात् हवासे उड़ती हुई उनकी जटाएँ ऐसी जान पड़ती थीं, मानो समीचीन ध्यानरूपी अग्निसे जलते हुए कर्मके धूमकी पंक्ति हो । इस प्रकार हम देखते हैं कि ऋषभदेवकी प्रतिमाओंका जटाजूट संयुक्त रूप परम्परानुकूल रहा है। इन प्रतिमाओंकी रचना -शैली, तक्षण कौशल, भावाभिव्यक्ति और अलंकरणादिका सूक्ष्म अध्ययन करने पर लगता है कि ये सभी प्रतिमाएँ एक ही कालकी हैं और उस कालकी हैं, जब मूर्तिकलाका पर्याप्त विकास हो चुका था । किलेमें भूगर्भसे इतनी प्राचीन प्रतिमाओंके मिलनेसे अवश्य ही निम्नलिखित निष्कर्षं निकाले जा सकते हैं । १ - अत्यन्त प्राचीनकालमें इस स्थानपर जैन मन्दिर था। यह मन्दिर भगवान् के दीक्षा और केवलज्ञान कल्याणकोंके स्थानपर उनकी स्मृतिमें बना था। जैन जनतामें 'तीर्थक्षेत्र के रूपमें' यह मान्य रहा और जैन लोग तीर्थयात्रा के लिए यहाँ आते रहे । किन्तु बादमें किस कालमें इस मन्दिरका विनाश हो गया या किया गया, यह कहना कठिन है । २ - प्राचीनकालमें शासन देवताओंकी मूर्ति बनाने का भी रिवाज था । ३ - मूर्तियोंके पीठ-मूल में लेख अंकित करनेकी प्रथा गुप्तकालमें निश्चित रूपसे प्रचलित हो गयी थी । साधारण अपवादोंको छोड़कर मूर्तियोंपर लेख अंकित किये जाने लगे थे । गुप्तकाल
SR No.090096
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1974
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size16 MB
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