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उत्तरप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
१३५ एवमुक्त्वा प्रजा यत्र प्रजापतिमपूजयत् ।
प्रदेशः स प्रजागाख्यो यतः पजार्थयोगतः ॥९।९६।। अर्थात् 'तुम लोगोंकी रक्षाके लिए मैंने चतुर भरतको नियुक्त किया है। तुम उसकी सेवा करो' भगवान्के ऐसा कहने पर प्रजाने उनकी पूजा की । प्रजाने जिस स्थानपर भगवान्की पूजा की, वह स्थान पूजाके कारण 'प्रयाग' इस नामको प्राप्त हुआ। इसी प्रकार आचार्य रविष्णने 'पद्मपुराण' में कहा है
प्रजाग इति देशोऽसौ प्रजाभ्योऽस्मिन् गतो यतः ।
प्रकृष्टो वा कृतस्त्यागः प्रयागस्तेन कीर्तितः ॥१३॥२८॥ अर्थात् भगवान् वृषभदेव प्रजासे दूर हो उस स्थानपर पहुँचे थे, इसलिए उस स्थानका नाम 'प्रजाग' प्रसिद्ध हो गया। अथवा भगवान्ने उस स्थानपर बहुत भारी त्याग किया था। इसलिए उसका नाम 'प्रयाग' भी प्रसिद्ध हुआ।
इन उल्लेखोंसे स्पष्ट है कि भगवान् ऋषभदेवके कारण ही इस स्थानका नाम 'प्रयाग' पड़ा और फिर पूरिमताल नगर भी प्रयाग कहलाने लगा। क्योंकि साहित्यमें ऋषभदेवके पश्चात् पुरिमताल नामक किसी नगरका नाम देखने में नहीं आया। भगवान् प्रजापति कहलाते थे, प्रजा उन्हें हृदयसे प्रेम करती थी, उनपर श्रद्धा रखती थी। इसलिए भगवान्के सर्वस्व त्याग जैसी अपूर्व घटनाके कारण 'प्रयाग' नाम पड़ा, जो आगे चलकर स्थायी हो गया।
दीक्षा लेनेके पश्चात् भगवान् यहाँपर केवल छह माह तक ही रहे। इसके पश्चात् वे विभिन्न देशोंमें विहार करते रहे। ठीक एक हजार वर्ष पश्चात् वे पुरिमताल नगर पधारे । भगवज्जिनसेनाचार्यके शब्दोंमें मौनी, ध्यानी और मानसे रहित वे अतिशय बुद्धिमान् भगवान् धीरे-धीरे अनेक देशोंमें विहार करते हुए किसी दिन पुरिमताल नामक नगरके समीप जा पहुंचे। वहाँ शकट नामक वनमें वटवृक्षके नीचे एक शिलापर पर्यकासनसे विराजमान हो गये। उन्होंने ध्यानाग्नि द्वारा घातिया कर्मोंका नाश कर दिया और फाल्गुन कृष्णा एकादशीको उत्तराषाढ नक्षत्र में भगवान्को निर्मल केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। सम्पूर्ण देवों और इन्द्रोंने वहाँ आकर केवलज्ञानकी पूजा की और केवलज्ञान कल्याणकका महोत्सव बनाया। इन्द्रकी आज्ञासे देवोंने उसी स्थानपर समवसरणकी रचना की । उस समय उस नगरका नरेश, ऋषभदेवका तृतीय पुत्र वृषभसेन अनेक राजाओंके साथ भगवान्के पास पहुँचा और दीक्षा लेकर भगवान्का प्रथम गणधर बना । तब इस युगमें प्रथम तीर्थंकरका प्रथम उपदेश यहींपर हुआ। भगवान् ऋषभदेवने धर्मचक्र प्रवर्तन प्रयागमें ही किया।
भगवान्की दीक्षाके कारण इस नगरका नाम बदलकर प्रयाग हो गया और जिस वटवृक्षके नीचे उन्हें अक्षय ज्ञान-लक्ष्मी प्राप्त हुई, वह वटवृक्ष 'अक्षयवट' कहलाने लगा। नन्दिसंघकी गुर्वावलीमें अक्षयवटका उल्लेख इस प्रकार मिलता है-'श्री सम्मेदगिरि-चम्पापुरी-ऊर्जयन्तगिरिअक्षयवट-आदीश्वर दीक्षा सर्व सिद्धक्षेत्र कृत यात्राणां।' इसमें अक्षयवटको तीर्थ स्थान माना है।
काष्ठा संघ नन्दीतट गच्छके भट्टारक श्रीभूषणके शिष्य नयनसागरने, जो १६वीं, १७वीं शताब्दीके विद्वान हैं, अपनी 'सर्वतीर्थवन्दना' नामक रचनामें प्रयागके सम्बन्धमें भी लिखा है. जो इस प्रकार है
'गंगा-यमुना मध्य नयर प्रयाग प्रसिद्धह । जिनवर वृषभ दयाल धृत संयम मन सुद्धह ।