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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ
और कौशाम्बी दिगम्बर जैन मन्दिर बनवाये। वे अपने जीवनमें पूरे छह मन्दिर बनवा पानेसे पहले ही स्वर्गवासी हो गये। अतः शेष तीन मन्दिरोंका निर्माण उनके वंशजोंने कराया। इसके अतिरिक्त उनके वंशजोंने 'प्रभुदास जैन ( तीर्थक्षेत्र ) निधि' नामसे एक ट्रस्टकी स्थापना की, जिसकी ओरसे इन मन्दिरोंकी देखभाल और व्यवस्था होती है। वार्षिक मेला
यहाँ चैत्र कृष्ण पंचमीको वार्षिक मेला भरता है।
प्रयाग
मार्ग
दिल्लीसे कलकत्ता जानेवाली उत्तर रेलवे लाइनपर इलाहाबाद जंक्शन है। यह सभी ओरसे केन्द्रमें है। इलाहाबाद जंक्शनपर उत्तर रेलवे और मध्य रेलवेकी लाइनें मिलती हैं। सड़कके मार्ग द्वारा भी इसका सम्बन्ध सभी बड़े शहरोंसे है। नैनीमें हवाई अड्डा भी है। मुहल्ला चाहचन्दमें जैन धर्मशाला है। तीर्थक्षेत्र
आद्य तीर्थंकर भगवान ऋषभदेवने जिन ५२ देशोंकी रचना की थी, उनमें कोशल देश भी था। उसके अन्तर्गत ही पुरिमताल नामक एक नगर था। भगवान्ने दीक्षा लेनेसे पूर्व अपने सौ पुत्रोंको विभिन्न नगरोंके राज्य दिये थे। उनमें वृषभसेन नामक पुत्रको पुरिमतालनगरका राज्य दिया। जब भगवान्ने नीलांजना अप्सराकी नृत्य करते हुए मृत्यु देखी तो उनके मनमें संसार, शरीर और भोगोंके प्रति निर्वेद हो गया। लौकान्तिक देवोंने इस पूण्य अवसरपर आकर भगवान्के वैराग्यको सराहना की, अनुमोदन किया और प्रेरणाप्रद निवेदन किया। भगवान् राजपाट त्यागकर दीक्षा लेने अयोध्यासे देवनिर्मित पालकी 'सूदर्शन में चल दिये। पालकीको सर्वप्रथम भूमि गोचरियोंने उठाया और सात कदम चले । पश्चात् विद्याधरोंने पालकीको उठाया। तदनन्तर देवोंने पालकीको उठा लिया और आकाश मार्गसे चले।।
आकाशमें देव और इन्द्र हर्ष-विभोर चल रहे थे और भूमिपर भगवान्की स्त्रियाँ-नन्दा और सुनन्दा, अन्य परिवारी जन और जनता शोकाकूल चल रही थी। साथमें भगवान्के मातापिता मरुदेवी और नाभिराय भगवान्का दीक्षाकल्याणक देखने चल रहे थे।
भगवान् सिद्धार्थ वनमें पहँचकर पालकीसे उतर पड़े और फिर उन्होंने सभी प्रकारके परिग्रहका त्याग करके एक वटवृक्षके नीचे पूर्वाभिमुख होकर अपने हाथों द्वारा केश लुंचन कया। इस प्रकार भगवानने चैत्र कृष्णा नवमीके दिन सायंकालको उत्तराषाढ नक्षत्रमें दीक्षा ले ली और छह माहका योग लेकर उस वटवृक्षके नीचे एक शिला-पट्टपर आसीन हो गये। दीक्षा लेते ही भगवान्को मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया। चार हजार राजा भगवान्के साथ दीक्षित हो गये। उनमें सम्राट् भरतका पुत्र मरीचि भी था। देवों और इन्द्रोंने भगवान्का दीक्षाकल्याणक मनाया।
इसी समयसे उस स्थानका नाम प्रयाग पड़ गया। आचार्य जिनसेनने इस सम्बन्धमें हरिवंश-पुराणमें बड़े स्पष्ट शब्दोंमें उल्लेख किया है। वे लिखते हैं :