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________________ १३२ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ समवसरण-रचनाका अध्ययन करनेपर एक निष्कर्ष निकलता है कि समवसरण तीर्थंकर भगवान्के पुण्यवैभवका परिणाम है । जैन मन्दिर समवसरणके प्रतीक होते हैं । किन्तु जैन मन्दिरमें समवसरणकी सम्पूर्ण रचना नहीं की जा सकती। अतः समवसरणकी अनेक मांगलिक वस्तुओंकी स्वतन्त्र रचना भी होती रही है। ऐसी रचनाओंमें स्तूपोंका अपना अलग महत्त्व रहा है। इसी लिए देशके विभिन्न स्थानोंसे उत्खननमें भी स्तूपोंकी उपलब्धि हुई और कई स्थानोंपर अबतक ये जीर्ण-शीर्ण दशामें खड़े भी हए हैं। ऐसा लगता है, प्राचीनकालमें, विशेषतः ईसा पूर्व तीसरी शताब्दीसे गुप्तकाल तक जैन स्थापत्य कलामें स्तूपोंका विशेष प्रचलन रहा।---- जैन शास्त्रोंमें स्तूपोंके सम्बन्धमें विस्तारपूर्वक विवरण उपलब्ध होते हैं। जैन वाङ्मयमें स्तूप दस प्रकारके बताये गये हैं लोक स्तूप, मध्यलोक स्तूप, मन्दर स्तूप, कल्पवास स्तूप, ग्रेवेयक स्तूप, अनुदिश स्तूप, सर्वार्थसिद्धि स्तूप, सिद्धस्तूप, भव्यकूट स्तूप, प्रमोद स्तूप । ये स्तूप तत्त्वबोध प्राप्त करनेके साधनोंके रूपमें माने जाते थे। इसी उद्देश्यसे उनका निर्माण भी होता था। पश्चाद्वर्ती कालमें प्रबोध स्तूप निर्मित होने लगे, जो तीर्थंकरों और मुनियोंके स्मारक थे। इन स्तूपोंकी पूजाका प्रचलन प्रारम्भसे ही रहा है। ऐसे स्तूप मथुरा, देवगढ़ आदि स्थानों में मिले हैं। यहाँ जो स्तूप खड़ा है, वह देवानां प्रिय, प्रियदर्शी सम्राट् सम्प्रतिका हो सकता है। इस मान्यताके समर्थनमें कई तर्क उपस्थित किये जा सकते हैं। प्रथम तो यह कि यह स्थान तीर्थंकर श्रेयान्सनाथकी कल्याणक भूमि है। दूसरे, 'देवानां प्रिय' यह जैन परम्पराका शब्द है। जैन सूत्र साहित्यमें इस शब्दका प्रयोग स्थान-स्थान पर मिलता है। इसका प्रयोग भव्य, श्रावक आदिके अर्थमें आता है। सम्प्रतिने अपने लिये प्रियदर्शी शब्दका ही सर्वत्र प्रयोग किया है, लेकिन कहीं-कहींपर देवानांप्रिय प्रियदर्शी शब्द भी प्रयुक्त हुआ है। सम्भवतः इन्हीं कारणोंसे पुरातत्त्वविशारदोंको भी सम्राट अशोक द्वारा इसके निर्मित होनेका सन्देह है। इसीलिए इस स्तूपके सम्बन्धमें पुरातत्त्व विभागकी ओरसे जो सूचना-पट्ट लगाया गया है, उसमें अपने इस सन्देहको “सम्भवतः यह स्तूप सम्राट अशोक द्वारा निर्मित हुआ" यह लिखकर प्रकट किया गया है। श्रेयान्सनाथके नामपर ही इस स्थानका नाम सारनाथ पड़ा। व्यवस्था यहाँके जैन मन्दिरकी व्यवस्था दिगम्बर जैन पंचायत बनारसके अधीन है। यहाँ वर्षमें फाल्गुन कृष्ण एकादशीको, जिस दिन श्रेयान्सनाथ भगवान्ने दीक्षा ली थी, मेला होता है और श्रावण शुक्ला १५ को, जिस दिन भगवान्का निर्वाण हुआ था, दूसरा मेला भरता है। यहाँ ठहरनेके लिए जैन धर्मशाला बनी हुई है। इसमें चारों ओर कमरे और दालान हैं तथा बीचमें उद्यान है। धर्मशालाके पीछे चार बोधेमें उद्यान बना हआ है, जो धर्मशालाकी ही सम्पत्ति है। बौद्धतीर्थ बौद्ध मान्यतानुसार महात्मा बुद्धने सर्वप्रथम अपने पंचवर्गीय शिष्योंको यहींपर उपदेश देकर अपना धर्म-चक्र प्रवर्तन किया। बौद्ध ग्रन्थोंमें इस स्थानका नाम ऋषिपत्तन और मृगदाव आता है। यहाँ सारे विश्वसे बौद्ध यात्री दर्शनार्थ आते हैं।
SR No.090096
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1974
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size16 MB
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