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उत्तरप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
१३१ ९३ फुट है। इसका वेदीबन्ध अठकोण है। इसके पार्श्वमें एक महराव है। महरावके पादपीठपर प्रारम्भमें मूर्तियाँ रखी हुई थीं। दक्षिण भाग बेलबूटोंसे अलंकृत है, जिनके कुछ भाग अब तक अवशिष्ट हैं । यह स्तूप २२०० वर्षके लगभग प्राचीन है। इस स्तम्भकी ओपदार पालिश तथा अश्वादि जानवरोंका चित्रण कलाके उत्कृष्टतम उदाहरणोंमें से है। इसका निर्माण सम्राट प्रियदर्शीने कराया था। भगवान श्रेयान्सनाथकी जन्म नगरी होनेके कारण सम्प्रतिने भगवानकी स्मृतिमें इसे निर्मित कराया होगा, यह मान्यता भी प्रचलित है। स्तूपके ठीक सामने सिंहद्वार बना हुआ है, जिसके दोनों स्तम्भों पर सिंहचतुष्क बना हुआ है। सिंहोंके नीचे धर्मचक्र है जिसके दायीं ओर बैल और घोड़ेकी मूर्तियाँ अंकित हैं । द्वारका आकार भी बड़ा कलापूर्ण है।
भारत सरकारने इस स्तम्भकी सिंहत्रयीको राजचिह्नके रूपमें मान्य किया है और धर्मचक्रको राष्ट्रध्वजपर अंकित किया है। जबसे इन धर्मचिह्नोंको शासनसे मान्यता प्राप्त हुई है, तबसे जनसाधारणका ध्यान इस ओर विशेष रूपसे आकृष्ट हुआ है।
जैन मान्यतानुसार प्रत्येक तीर्थंकरका एक विशेष चिह्न होता है और प्रत्येक तीर्थंकरप्रतिमापर उसका चिह्न अंकित रहता है। उन चिह्नोंसे ही यह ज्ञात हो जाता है कि यह प्रतिमा अमुक तीर्थंकरकी है। वे चिह्न मांगलिक कार्यों और मांगलिक वास्तुविधानोंमें भी मंगल चिह्नोंके रूपमें प्रयुक्त किये जाते हैं। सिंह भगवान् महावीरका चिह्न है। बैल प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेवका और घोड़ा तृतीय तीर्थंकर सम्भवनाथका चिह्न है।
इसी प्रकार धर्मचक्र तीर्थंकरों और उनके समवसरणका एक आवश्यक अंग है । समवसरणकी देवनिर्मित रचनामें सिद्धार्थवृक्ष, चैत्यवृक्ष, कोट, वनवेदिका, स्तूप, तोरणयुक्त मानस्तम्भ, ध्वजस्तम्भ, श्रीमण्डप आदि होते हैं। श्रीमण्डपमें तीन पीठिका होती है। प्रत्येक पीठिकापर अष्टमंगल-द्रव्य होते हैं तथा यक्ष अपने मस्तकपर धर्मचक्र लिये खड़े रहते हैं। इनमें हजार-हजार आरे होते हैं।
.इसी प्रकार जब तीर्थंकर बिहार करते हैं, तब उनके आगे-आगे हजार आरोंवाला धर्मचक्र चलता है । भगवज्जिनसेनने बताया है
सहस्रार-स्फुरद्धर्म-चक्ररत्नपुरःसरः ।। आदिपुराण २५।२५६ इस धर्मचक्रके कारण ही तीर्थंकरको धर्मचक्री कहा जाता है। आचार्य जिनसेन कहते हैं
महाप्रभावसम्पन्नास्तत्र शासनदेवताः ।
नेमुश्चाप्रतिचक्राद्या वृषभं धर्मचक्रिणम् ।। हरिवंशपुराण ९।२२२ अर्थात् बड़े-बड़े प्रभावशाली अप्रतिचक्र आदि शासन देवता धर्मचक्री भगवान्को निरन्तर नमस्कार करते हैं। ..... -
तीर्थंकर केवलज्ञान प्राप्त करनेके पश्चात् जो प्रथम धर्मोपदेश करते हैं, उसे धर्मचक्रप्रवर्तन कहा जाता है।
धर्मचक्रका इतना महत्त्व होनेके कारण ही प्रायः सभी प्रतिमाओंके सिंहासनों और वेदियोंमें धर्मचक्र बना रहता है। शिलापट्टपर जो प्रतिमाएं बनायी जाती हैं उनमें भी प्रायः धर्मचक्र मिलता है।
पौराणिक मान्यताके अनुसार इस स्थानपर ग्यारहवें तीर्थंकर श्रेयान्सनाथने धर्मचक्रप्रवर्तन किया था। यहाँपर देवोंने उनके समवसरणकी रचना की थी।