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________________ १२४ . भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ पालीटीका परमत्थ जोतिका (जि०१, पृ. १५८-६५ ) में लिखा है कि विदेहके जनक वंशका स्थान उन लिच्छवियोंने लिया जिनका राज्य विदेहका सबसे शक्तिशाली राज्य था तथा जो वज्जिगणके प्रमुख भागीदार थे। ये लिच्छवि काशीकी एक रानीके वंशज थे। विदेहके लिच्छवियोंमें अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीरका जन्म हआ और काशीकी वाराणसी नगरीमें तीर्थंकर पार्श्वनाथका जन्म हुआ। अतः इन दोनों राज्योंमें राजनीति और धर्मका घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। दिगम्बर जैन साहित्यके अनुसार पार्श्वनाथ उग्गवंशी थे और सूत्रकृतांगमें उग्रों, भोगों, ऐक्ष्वाकों और कौरवोंको ज्ञातृवंशी और लिच्छवियोंसे सम्बद्ध कहा है। इससे भी काशीके उग्रवंश तथा विदेहके लिच्छवियों और ज्ञातृवंशियोंके पारस्परिक सम्बन्धका समर्थन होता है'। कलकत्ता विश्वविद्यालयमें डा. दे. रा. भण्डारकरने ई. पूर्व ६५०-३२५ तकके भारतीय इतिहासपर कुछ भाषण दिये थे। उसमें उन्होंने कहा था कि बौद्ध जातकोंमें ब्रह्मदत्तके सिवाय काशीके छह राजा और बतलाये हैं। उग्रसेन, धनंजय, महासीलव, संयम, विस्ससेन और उदयभद्द । विष्णुपुराण और वायपुराणमें ब्रह्मदत्तके उत्तराधिकारी योगसेन, विश्वकसेन और झल्लाट बतलाये हैं। डॉ. भण्डारकरने पुराणोंके विष्वक्सेन और जातकोंके विस्ससेनको एक ठहराया है। ___ जैन साहित्यमें पार्श्वनाथके पिताका नाम अश्वसेन या अस्ससेण बतलाया है। किन्तु यह नाम न तो हिन्दू पुराणोंमें मिलता है और न बौद्ध जातकोंमें। गुणभद्रने अपने उत्तरपुराणमें पार्श्वनाथके पिताका नाम विश्वसेन दिया है। जातकोंके विस्ससेण और हिन्दूपुराणोंके विश्वक्सेनसे इसकी एकरूपता सम्भव है। यहाँ अनेक राजवंश आये और गये। फिर १०३३ ई. में इस सांस्कृतिक नगरीके दुर्दिन आये, जबकि नियाल्तगीन नामक मुसलमान सरदारने इसको कई दिन तक लूटा। बादकी शताब्दियोंमें ऐसे अवसर कई बार आये। फिर १६५९ ईमें मुगलसम्राट औरंगजेबने काशीके अनेक मन्दिरोंको तुड़वा दिया और उनके स्थानपर मसजिदें बनवा दी। ज्ञानवापीकी मसजिद विश्वनाथ मन्दिरको तुड़वाकर उसकी सामग्रीसे बनवायी गयी थी। यहाँ राजघाट मुहल्ले में सरकारकी ओरसे खुदाई हुई थी, उसमें शुंगकाल ( ई० पू० १८५ से १०० )से लेकर मध्यकाल तकके अवशेष विपुल मात्रामें मिले हैं। पुरातत्व स्थानीय भारत-कलाभवनमें पुरातत्त्व सम्बन्धी बहुमूल्य सामग्री संग्रहीत है। यहाँ राजघाट तथा अन्य स्थानोंपर खुदाईमें जो पुरातत्त्व सामग्री उपलब्ध हुई थी, वह इस कला-भवनमें सुरक्षित है। यह सामग्री विभिन्न युगोंसे सम्बन्धित है। इसमें पाषाण और धातुको अनेक जैन प्रतिमाएँ भी हैं । ये कुषाणकालसे लेकर मध्यकाल तककी हैं। यहाँ कुषाण युगकी भगवान् पार्श्वनाथकी प्रतिमाका एक शीर्षभाग है जो मथुरासे उत्खननमें प्राप्त हुआ था। इस शिरोभागके ऊपर सप्त फणावली है। धुंघराले केश-कुन्तलोंका विन्यास अत्यन्त कलापूर्ण है। १. Political history of Ancient India, P. 99.
SR No.090096
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1974
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size16 MB
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