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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थं
Glimpses of political history (p. 65 ) में लिखा है कि 'जब नाग जाति गंगाकी में बसती थी तो एक नाग राजाके साथ वाराणसीकी राजकुमारीका विवाह हुआ था अतः वाराणसीके साथ नाग राजाओंका घनिष्ठ सम्बन्ध था और गंगाकी घाटी (अहिच्छत्र ) में ही तप करते हुए पार्श्वनाथकी रक्षा नागोंने की थी । अहिच्छत्र उसीका स्मारक हो सकता है ।
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नाग जाति और नागपूजाके इतिहासपर अभी तक स्पष्ट प्रकाश नहीं पड़ पाया। कुछ विद्वानोंने यह तर्क दिया है कि नाग जाति और उसके वीरोंके शौर्यंकी स्मृतिको सुरक्षित रखने के लिए नागपूजा प्रचलित हो गयी । पद्मपुराण ( सृष्टि खण्ड ) में नागोंकी उत्पत्ति कश्यप ऋषिकी पत्नी कसे बतायी है । किन्तु हमारी धारणा है कि सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथके साथ नाग जातिका सम्बन्ध है । सुपार्श्वनाथकी मूर्तियोंके ऊपर नागफणका प्रचलन सम्भवत: इसीलिए हुआ । नाग जातिके व्यक्तियोंकी पहचान के लिए उनकी मूर्तियोंके भी ऊपर सर्पफण लगाये जाने लगे। इस प्रकारकी मूर्तियाँ मथुरा आदिमें मिली हैं । जहाँ तक नागपूजाका सम्बन्ध है, यह तो निश्चय ही भगवान् पार्श्वनाथके ऊपर उपसर्ग होनेपर नागेन्द्र द्वारा सर्प-फणोंसे रक्षा करनेकी घटनाकी यादगार है । पार्श्वनाथका काल आजसे पौने तीन हजार वर्षं प्राचीन । इससे प्राचीन किसी ग्रन्थ में नागपूजाका उल्लेख प्राप्त नहीं होता ।
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भगवान् पार्श्वनाथ वाराणसीके ही राजकुमार थे । वहाँकी जनताका उनके प्रति अपार प्रेम और भक्ति थी । वे जनताके उपास्य थे । उसके उपास्यकी रक्षा धरणेन्द्रने नागरूप धारण कर की थी, भोली जनता ऐसा ही तो समझती थी । इसलिए कृतज्ञता प्रकट करनेके लिए उस नागकी पूजा करने लगी । इस प्रकार वाराणसीमें नागपूजाका प्रचलन हुआ ।
यक्षपूजाका सम्बन्ध भी धरणेन्द्र और पद्मावतीसे है, जो पार्श्वनाथके यक्ष-यक्षिणी माने जाते हैं । यक्षपूजा पार्श्वनाथके समय से प्रचलित नहीं हुई, यह चलन उत्तरकालीन है । इस चलनके साथ यक्षोंके सम्बन्धमें बहुत कुछ कल्पनाएँ और मान्यताएँ भी बढ़ीं । वे कष्ट देते हैं, शरीरमें उनका आवेश होता है और मन्त्रों- तन्त्रोंसे वे उतरते हैं, जनताको वे बहुत परेशान करते हैं, ऐसी भी मान्यताएँ चल पड़ीं। दूसरी ओर यह भी धारणा थी कि यक्ष प्रसन्न होते हैं तो मनोकामनाएँ पूर्ण करते हैं । काशीमें दोनों ही प्रकारके यक्षोंकी मान्यताएँ प्रचलित थीं । मणिभद्र आदि यक्षोंके उल्लेख श्वेताम्बर जैन शास्त्रोंमें प्रचुरतासे मिलते हैं ।
अवस्थिति और इतिहास
काशी मध्यवर्ती जनपद था । उसके पिछवाड़े कोशल, वत्स महाजनपद थे । उसके सामने विदेह और मगध थे । काशीसे चारों ओर मार्ग जाते थे । उत्तरकी ओर श्रावस्ती और दक्षिणकी ओर कोशल थे । पूर्व में मगध और पश्चिममें वत्स थे I
बौद्धयुगमें एक रास्ता काशीसे राजगृह जाता था। दूसरा रास्ता भद्दिया होता हुआ श्रावस्तीको जाता था । वाराणसीसे तक्षशिला और वेरंजाके बीच भी एक रास्ता था । एक रास्ता वैशालीको भी जाता था । वेरंजासे एक सड़क मथुरा जाती थी तथा वहाँसे तक्षशिलाको । वाराणसीसे जल-मार्ग द्वारा आवागमन बहुत प्राचीन कालसे रहा है । वहाँ से ताम्रलिप्ति होकर पूर्वी समुद्रको पार करते थे । इस प्रकार केन्द्रमें होनेके कारण वाराणसी नगरी
१. डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल ।