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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थं
सेनगणकी पट्टावलीमें भीमलिंग शिवालय में शिवकोटि राजाकी मुनि दीक्षाका उल्लेख मिलता है । इसमें उसे नवतिलिंग देशका राजा बताया है । 'विक्रान्तकौरव' नाटक तथा नगर ताल्लुकेके ३५ वें शिलालेख में शिवकोटि को समन्तभद्रका प्रधान शिष्य बताया है ।
इसी प्रकार तिरुमकूडलु नरसीपुर ताल्लुकेके शिलालेख नं० १०५ में जो शक संवत् १९०५ IT लिखा हुआ है, समन्तभद्र के सम्बन्ध में लिखा है
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समन्तभद्रः संस्तुत्यः कस्य न स्यान्मुनीश्वरः । वाराणसीश्वरस्याग्रे निर्जिता येन विद्विषः ॥
अर्थात् समन्तभद्रकी स्तुति कौन नहीं करेगा जिन्होंने वाराणसीनरेशके समक्ष अपने सब विपक्षियोंको परास्त कर दिया ।
इससे यह सिद्ध होता है कि वाराणसीमें समन्तभद्रने नगरके राजाके समक्ष विपक्षियोंसे शास्त्रार्थं किया था और उन्होंने उसमें विजय प्राप्त की थी। 'राजावली कथे' के अनुसार समन्तभद्र कौशाम्बी, मणुवकहल्ली, लाम्बुश, पुण्डोड्र, दशपुर और वाराणसीमें भी कुछ समय तक रहे ।
श्रवणबेलगोलाके शिलालेख नं० ५४ में उन स्थानोंका वर्णन है, जहाँ स्वामी समन्तभद्र धर्मकी विजय वैजयन्ती फहराते हुए पहुँचे और विपक्षियोंको ललकारा। उन स्थानोंमें पाटलिपुत्र, मालवा, सिन्ध, पंजाब, कांची, विदिशा और करहाटक ( सताराके पास कराड़ ) हैं ।
हिन्दी प्रसिद्ध कवि बनारसीदास भी यात्राके निमित्त काशीमें आये थे । उनके लिखे हुए 'अर्धकथानक' नामक आत्मचरित ग्रन्थसे पता चलता है कि वे व्यापार आदिके सिलसिले में वाराणसी कई बार आये थे । इतना ही नहीं, उनका बनारसीदास यह नाम भी बनारसकी यात्राके कारण ही पड़ा । उनके इस नामकरणकी कथा बड़ी रोचक है । बनारसीदासका जन्म माघ शुक्ला ११ संवत् १६४३ को श्रीमान् खड़गसेनके घरमें जौनपुरमें हुआ । जब बालक छह सात महीने का हुआ, तब खड़गसेन जी यात्रा के निमित्त काशी गये । बालकका राशि नाम विक्रमाजीत था । खड़गसेनजी ने बालकको पार्श्वप्रभुके चरणों में रख दिया और उसके दीर्घायु होनेकी प्रार्थना की। उस समय मन्दिरका पुजारी भी वहाँ खड़ा था। थोड़ी देर ध्यान लगाकर बोला- भगवान् पार्श्वनाथके यक्षने मुझसे कहा है कि यदि बालकका नाम पार्श्वनाथके जन्म-नगर (बनारस) के नामपर रखा जायेगा तो बालक चिरायु होगा ।
जो प्रभु पार्श्व जन्मको गाँव । सो दीजे बालकको नांव ॥
तो बालक चिरजीवी होय । यह कहि लोप भयो सुर सोय ॥
- अर्धकथानक, ९१-९२
तबसे बालकका नाम बनारसीदास रख दिया गया ।
वि. संवत् १६६१ में, जब पिता खड्गसेनजी शिखरजीकी यात्रापर चले गये, तब बनारसीदास अपनी मातासे पार्श्वनाथ भगवान् के मेलेमें जानेके लिए झगड़ने लगे । यहाँ तक कि १. पूर्वं पाटलिपुत्रमध्यनगरे भेरी मया ताडिता
पश्चान्मालव-सिन्धु-ठक्क विषये काञ्चीपुरे वैदिशे । प्राप्तोऽहं करहाटकं बहुभटं विद्योत्कटं संकट वादार्थी विचराम्यहं नरपते शार्दूलविक्रीडितम् ।