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________________ उत्तरप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ ११९ भद्रने आत्म-परिचयके लिए 'काञ्च्यां नग्नाटकोऽहं'' इत्यादि श्लोक बोला। राजा तथा अनेक प्रजाजन स्वामीजीके शिष्य हो गये। स्वामी समन्तभद्रने पुनः जैन मुनिकी दीक्षा ले ली। राजा शिवकोटि आदिने भी उनसे मुनि-दीक्षा ले ली। वाराणसीके बाँस फाटक मुहल्लेमें गुदौलिया चौक मार्गपर एक छोटा-सा शिवालय है, जो फटे महादेवके नामसे ख्यात है। इसकी पिण्डी ठीक बीचसे एकदम फटी है। आजसे ५० वर्ष पूर्वक वृद्ध जनोसे यह सुना गया था कि एक समय यह विशाल मन्दिर था और इसे समन्तभद्रेश्वर कहते थे। जब यह सड़क बनी तो वह मन्दिर ध्वस्त हो गया। ____कन्नड़ भाषाके एक ग्रन्थ 'राजावली कथे' में स्वामी समन्तभद्रकी जो कथा दी गयी है, उसमें और आराधना कथाकोषकी उपयुक्त कथामें कहीं-कहीं अन्तर है। उसमें यह कथा इस प्रकार दी गयी है जब समन्तभद्र मुनि-धर्मका पालन करते हुए मणुवकहल्ली ग्राममें विराजमान थे, तब तीव्र असातावेदनीय के उदयसे उन्हें भस्मक रोग हो गया। तब गुरुकी आज्ञासे उन्होंने भस्म लगा ली और वे मणुवकहल्लीसे कांची पहुँचे। वहाँ शिवकोटि राजाके पास, सम्भवतः उसके भीमलिंग शिवालयमें, जाकर उसे आशीर्वाद दिया। उनकी आकृति देखकर और उन्हें ही शिव समझकर राजाने उन्हें प्रणाम किया। उसने अपनी शिवभक्ति, मन्दिरका निर्माण और भीमलिंग मन्दिरमें प्रतिदिन बाहर खंडुक परिमाण तण्डुलान्न विनियोग करनेका हाल उनसे निवेदन किया। समन्तभद्र सुनकर बोले-'मैं तुम्हारे इस नैवेद्यको शिवार्पण करूंगा।' यों कहकर उन्होंने मन्दिर बन्द कर लिया और सम्पूर्ण भोजन समाप्त कर दिया। इतना विपुल भोजन समाप्त देखकर राजाको बड़ा आश्चर्य हुआ। दूसरे दिन कुछ भोजन बचनेपर राजाको सन्देह हुआ। इस प्रकार प्रतिदिन भोजन बचने लगा और राजाका सन्देह उसी मात्रामें बढ़ता गया। पाँचवें दिन मन्दिरको सैनिकोंसे घिरवाकर मन्दिरको खोलनेकी आज्ञा राजाने दी। समन्तभद्रने उपसर्ग समझकर चतुर्विध आहारका त्याग कर दिया और चतुर्विंशति तीर्थकरोंकी स्तुति करना प्रारम्भ कर दिया। इस स्तुति-पाठका नाम 'स्वयम्भू स्तोत्र' है। जब वे आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभु स्वामीकी स्तुति कर रहे थे तो उन्होंने भीमलिंगकी ओर देखा तो उन्हें वहाँ किसी दिव्य शक्तिके प्रतापसे चन्द्रलांछन युक्त अर्हन्त भगवान्का एक जाज्वल्यमान स्वर्णमय विशाल विम्ब विभूति सहित प्रकट होता हुआ दिखाई दिया। उन्होंने दरवाजा खोल दिया और स्तुतिमें लीन हो गये । राजाने यह आश्चर्य देखा। वह अपने छोटे भाई शिवायन सहित उनके चरणोंमें गिर गया। स्वामीने उन्हें आशीर्वाद और उपदेश दिया। स्वामीका उपदेश सुनकर राजा संसारसे विरक्त हो गया। उसने अपने पुत्र कण्ठको राज्य देकर शिवायन सहित मुनि-दीक्षा धारण कर ली। अन्य लोगोंने भी अणुव्रतादि धारण किये। १. काञ्च्यां नग्नाटकोऽहं, मलमलिनतनुर्लाम्बुशे पाण्डुपिण्ड: पुण्डोरे शाक्यभिक्षुः दशपुरनगरे मिष्टभोजी परिव्राट् । वाराणस्यामभूवं शशधरधवल: पाण्डुरांगस्तपस्वी राजन् यस्यास्ति शक्तिः स वदतु पुरतो जैननिर्ग्रन्थवादी ॥ २. ब्रह्मचारी नेमिदत्त कृत आराधना कथाकोष, कथा-४ । ३. 'राजावली कथे' का पाठ, जिसे मि. डेविस राइसने Inscription Shravanbelgola पुस्तककी प्रस्तावनाके पृष्ठ ६२ पर उद्धृत किया है।
SR No.090096
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1974
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size16 MB
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