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________________ ११८ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ उस समय वाराणसीके नरेश शिवकोटि थे। उन्होंने शिवजीका एक विशाल मन्दिर बनवाया था। वहाँ राज्यकी ओर से अनेक प्रकारके व्यंजन शिवजीके आगे चढ़ते थे। स्वामी समन्तभद्रने देखा कि पुजारी शिवजीकी पूजा करके बाहर आये और शिवजीको चढ़ाई हुई व्यंजनोंकी भारी राशि बाहर लाकर रख दी। समन्तभद्र उसे देखकर पुजारियों से कहने लगे-'आपलोगोंमें किसीमें ऐसी शक्ति नहीं है, जो इस नैवेद्यको शिवजी को खिला सकें। पुजारियोंको इस प्रश्नसे बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने पूछा-'क्या आपमें यह शक्ति है ?' स्वामी बोले-'हाँ, मुझमें यह शक्ति है। तुम चाहो तो मैं यह सारी सामग्री शिवजीको खिला सकता हूँ।' . .... पुजारी तत्काल राजाके पास गये और उनसे सब समाचार कहा । राजाको भी सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ और उस अद्भुत योगीको देखनेके लिए वह उसी समय शिवालय में आया। उसने स्वामी समन्तभद्रको देखा। उनकी तेजमण्डित मुखमुदा और आकर्षक व्यक्तित्व को देखकर वह बड़ा प्रभावित हुआ। उसने बड़ी विनयके साथ निवेदन किया-योगिराज! सूना है, आपमें शिवालयका यह सम्पूर्ण नैवेद्य शिवजीको खिलानेकी सामर्थ्य है। यदि यह सत्य है तो लीजिए यह सामग्री, इसे महादेवजीको खिलाइए।' स्वामीने स्वीकृति देकर सब पक्वान्नों को मन्दिर में रखवा दिया और सब लोगोंको मन्दिर . से बाहर निकालकर अन्दरसे दरवाजा बन्द कर लिया। फिर आनन्दपूर्वक भोजन किया और सम्पूर्ण पक्वान्नको समाप्त करके बाहर आये। महाराज और उपस्थित जन वह अश्रुतपूर्व दृश्य देख विस्मित रह गये। अब राजाको ओरसे प्रतिदिन एक-से एक बढ़कर सुस्वादु पक्वान्न आने लगे और आचार्य उससे अपनी व्याधि शान्त करने लगे। इस प्रकार छह माह व्यतीत हो गये। रोग शान्त होता गया और उसी मात्रामें नैवेद्य बचने लगा। पूजारियों को सन्देह बढ़ने लगा। उन्होंने जाकर राजासे यह बात कहीं। राजाको भी सन्देह हआ। राजाके कहनेपर पुजारियोंने एक चालाक लड़केको मोरीमें छिपा दिया। यथा समय योगीराजने किवाड़ बन्द करके भोजन किया। लड़केने यह सब देखा और बाहर आकर पुजारियोंसे कह दिया। राजाको भी यह समाचार भेजा गया। राजा आया और आचार्य महाराजसे बोला-'हमें सब समाचार मिल गये हैं। तुम्हारा धर्म क्या है ? तुम सबके समक्ष शिवजीको नमस्कार करो।' स्वामी समन्तभद्र बोले-'राजन् ! मेरा नमस्कार स्वीकार करने में शिवजी समर्थ नहीं हैं। यदि आप फिर भी आग्रह करेंगे तो निश्चित समझिए, शिवजीकी यह मूर्ति फट जायेगी।' तब भी राजा बराबर आग्रह करता रहा और निश्चय हुआ कि दूसरे दिन प्रातःकाल स्वामी समन्तभद्र शिवजीको नमस्कार करेंगे। रात्रिमें स्वामी समन्तभद्र चौबीस तीर्थंकरोंकी स्तुति करने लगे। तभी शासन देवी प्रकट हुई और हाथ जोड़कर बोली-'प्रभो! आप किसी प्रकारकी चिन्ता न करें। जैसा आपने कहा है, वैसा ही होगा।' यह कहकर देवी अन्तर्धान हो गयी। स्वामी शेष रात्रिमें सामायिक करते रहे। प्रातःकाल होनेपर राजा आया। शिवलिंगके समक्ष स्वामीजीको बुलाया गया। राजाने उनसे शिवजीको नमस्कार करनेके लिए कहा। स्वामीजी जिनेन्द्र प्रभुकी भक्तिमें तन्मय होकर स्वयम्भू स्तोत्र (चौबीस तीर्थकरोंकी स्तुति ) का पाठ करने लगे। जिस समय वे आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभुकी स्तुति करने लगे, शिवमूर्ति फट गयी और उसमेंसे भगवान् चन्द्रप्रभुकी दिव्य प्रतिमा प्रकट हुई। इस दिव्य चमत्कारको देखकर सभी बड़े प्रभावित हुए। तब राजा हाथ जोड़कर बोला-'भगवन् ! आपका प्रभाव अचिन्त्य है। किन्तु आप हैं कौन ? उस समय स्वामी समन्त
SR No.090096
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1974
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size16 MB
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