SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 151
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११७ उत्तरप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ पद्म हुआ। उसने सम्पूर्ण भरत क्षेत्रको जीतकर काशीको उसकी राजधानी बनाया। यह प्रतापी सम्राट् इक्ष्वाकुवंशी था। ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि भगवान् पार्श्वनाथ विहार करते हुए केवलज्ञान प्राप्तिके पश्चात् वाराणसी पधारे थे। उनके दर्शनार्थ काशीनरेश अश्वसेन (भगवान्के पिता) और महारानी वामा देवी दोनों आये। समवसरणमें भगवान्का उपदेश सुनकर दोनोंने ही दीक्षा ले' ली थी। इसके पश्चात् यहाँ इतिहासकी जो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण घटना घटित हुई, वह थी स्वामी समन्तभद्रकी। मुनि समन्तभद्र दक्षिण भारतके उरगपुर ( अथवा उरैयूर) के रहने वाले थे। यह त्रिचनापल्ली नगरका बाहरी प्रान्त था। इसकी राजधानी कंचनपर या कांजीवरम् अथवा कांची थी। उस समय यहाँ पल्लव राजाओंका राज्य था। यह मद्रास से दक्षिण-पश्चिम की ओर ४२ मील दूर है तथा कावेरी नदीके तट पर अवस्थित है। उनके पिता फणिमण्डलान्तर्गत उरगपुरके राजा थे। इनके बचपनका नाम शान्तिवर्म' था। मुनि समन्तभद्र घोर तपस्वी थे और प्रकाण्ड विद्वान् भी। किन्तु अशुभोदय से इन्हें भस्मक रोग हो गया। भस्मक रोगमें कफ क्षीण हो जाता है, वायु और पित्त बढ़ जाते हैं। इससे जठराग्नि अत्यन्त प्रदीप्त, बलाढ्य और तीक्ष्ण हो जाती है। जो भी भोजन किया जाता है, क्षण मात्रमें भस्म हो जाता है। पौष्टिक भोजनसे ही यह रोग शान्त होता है। मुनि अवस्थामें यह सम्भव नहीं था। अतः वे गुरुकी आज्ञासे वहाँसे चल दिये। उस समय वे मणुवक हल्ली ( मैसूरसे लगभग ४० मील दूर ) में विराजमान थे। वहाँसे चलकर वे दिगम्बर अवस्थामें कांचीमें पहुंचे। फिर भस्म रमाकर लाम्बुशमें पहुंचे। वहाँ से बौद्ध भिक्षु का वेश बनाकर पुण्ड्र ( बंगाल ), उण्ड्र ( उड़ीसा )में घूमे। तदनन्तर परिप्राजकका बाना धारण करके दशपुर ( मध्यप्रदेशका मन्दसौर ) जा पहुँचे। फिर श्वेतवस्त्रधारी योगी बनकर वाराणसी गये। किन्तु यथेष्ट सुस्निग्ध पौष्टिक आहार की व्यवस्था नहीं बन सकी। १. पासनाह चरिउ-आचार्य पद्मकीति रचित । २. इहैव दक्षिणस्थायां काञ्च्यां पुर्यां परात्मवित् । मुनिः समन्तभद्राख्यो विख्यातो भुवनत्रये ॥ -आराधना कथाकोष २१ । ३. श्रवणवेलगोलके श्री दौर्वलि जिनदास शास्त्रीके शास्त्रभण्डारमें आप्तमीमांसा ग्रन्थ है। उसका पुष्पिका वाक्य इस प्रकार हैइति श्री फणिमण्डलालंकाराख्योरगपुराधिपसूनौः श्रीस्वामीसमन्तभद्रमुनेः कृतौ आप्तमीमासायां.... ४. 'गत्वैकस्तुतमेव' इस अन्तिम पदमें, समन्तभद्र विरचित 'स्तुति विद्या' ग्रन्थके अन्त में एक पंक्ति है ...---'शान्तिवर्मकृत जिनस्तुतिशतं' ५. वाराणसी ततः प्राप्तः कुलघोषः समन्विताम् । . योगिलिङ्गं तया तत्र गृहीत्वा पर्यटन् पुरे ॥ १९ ॥ स योगी लीलया तत्र शिवकोटिमहीभुजा । कारितं शिवदेवोरुप्रासादं संविलोक्य च ॥ २० ॥ आराधना कथाकोष-कथा ४
SR No.090096
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1974
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy