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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ अश्ववन ( या अश्वत्थवन ) में पहुँचे और वहाँ पालकीसे उतरकर सिद्धोंको नमस्कार किया। फिर प्रभुने पद्मासन लगाकर पंचमुष्टि लोंच किया। भगवान्ने दीक्षा लेकर आठ उपवास किये । वे विहार करते हुए गजपुर पहुँचे और वहाँ वरदत्तके घर पारणा की।
अनन्तर विहार करते हुए वे भीमाटवीमें पहुँचे और कायोत्सर्गकी अवस्था धारण कर ली। तभी कमठका जीव संवर नामका असुर आकाशमार्गसे जा रहा था कि अकस्मात् उसका विमान रुक गया। जब उसने अवधिज्ञानसे इसका कारण जानना चाहा तो उसे अपने पूर्वभवका वैर स्पष्ट दिखने लगा। उसे बहुत क्रोध आया और अपनी सामर्थ्यके अनुसार पार्श्वनाथको घोर कष्ट देने लगा। किन्तु धीर-वीर पाशवकुमारका ध्यान शरीरकी ओर नहीं था, वे तो आत्मलीन थे। घोर कष्टोंका भी कोई प्रभाव उनके ऊपर नहीं हुआ। अवधिज्ञानसे यह उपसर्ग जानकर 'नागकुमार देवोंका इन्द्र धरणेन्द्र अपनी इन्द्राणी सहित भगवान्के पास आया। कुमार-अवस्थामें महीपाल तापसकी कुल्हाड़ीसे आहत हुए जिन सर्प-सर्पिणीको पावकुमारने णमोकार मन्त्र सुनाया था, वे सर्प-सर्पिणी ही मर कर धरणेन्द्र और पद्मावती बने थे। धरणेन्द्रने भगवान्के ऊपर फणा-मण्डप तान दिया। इस प्रकार उपसर्ग निवारण हुआ।
उक्त घटनाका चित्रण आचार्य समन्तभद्र ( ३-४ शताब्दी) ने अपने पार्श्वनाथ-स्तवन में इस प्रकार किया है
तमालनीलैः सधनुस्तडिद्गुणैः प्रकीर्णभीमाशनिवायुवृष्टिभिः । वलाहकैर्वैरिवशैरुपद्रुतो महामना यो न चचाल योगतः ॥१॥ बृहत्फणामण्डलमण्डपेन यं स्फुरित्तडिपिङ्गरुचोपसर्गिणम् ।
जुगूह नागो धरणो धराधरं विरागसन्ध्यातडिदम्बुदो यथा ॥२॥ 2. अर्थात् तमालवृक्षके समान नीले, इन्द्रधनुष तथा बिजलीसे युक्त और भयंकर वज्र, वायु और वृष्टिको सब ओर फेंकनेवाले मेघोंसे, जो कि पूर्वजन्मके वैरी देवके द्वारा लाये गये थे, पीड़ित होनेपर भी महामना पार्श्वदेव ध्यानसे विचलित नहीं हुए। उस समय धरणेन्द्र नामक नागने चमकती हुई बिजलीके समान पीत कान्तिको लिये हुए अपने विशाल फणामण्डलका मण्डप बनाकर उपसर्गसे ग्रस्त पार्श्वनाथको उसी प्रकार ढक लिया, जिस प्रकार कृष्ण सन्ध्या में बिजलीसे मक्त मेघ पर्वत को ढक लेते हैं।
भगवान आत्म-ध्यानमें विचरण करते हुए निरन्तर शक्ल-ध्यान में आगे बढ़ रहे थे। उनके कर्म नष्ट हो रहे थे। आत्माकी विशुद्धि बढ़ती जा रही थी। तभी उन्हें लोकालोक-प्रकाशक केवलज्ञान प्राप्त हो गया। सारे उपसर्ग स्वतः ही समाप्त हो गये। देवों और इन्द्रोंके आसन कम्पित हुए। जब उन्हें ज्ञात हुआ कि भगवान् पार्श्वनाथको केवलज्ञानकी प्राप्ति हुई है, तो वे भक्तिपूर्वक उनकी 'वन्दना करने चले। इसी समय इन्द्रने अथाह जलके बीचमें भगवान्को देखा। उसने अपने ज्ञानसे जान लिया कि भगवानके ऊपर उपसर्ग किया गया है। इस बातसे उसे बहुत क्रोध आया। उसने वज्रायुधको आकाशमें घुमाकर उस असुरके ऊपर छोड़ दिया। वज्रको भीषण वेगसे अपनी ओर आता हुआ देखकर असुर नभमें, समुद्रमें, पृथ्वीपर सब कहीं दसों दिशाओंमें भागता फिरा। जब कहीं त्राण न मिल सका तो वह जिनेन्द्र प्रभु की शरणमें आया। तब वह अपने जीवनके प्रति आश्वस्त हो पाया। वज्र वापस चला गया। १, आ. पद्मकीर्ति कृत 'पासनाह चरिउ' के अनुसार। उत्तरपुराणके अनुसार गुल्मखेट नगरके नरेश धन्यके
घर भगवान्का आहार हुआ था।