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उत्तरप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
११३ तापस कमठका मान-भंग
पार्श्वकुमार इस समय सोलह वर्षके किशोर थे। एक दिन क्रीड़ाके लिए वे नगरसे बाहर गये। वहां उन्होंने एक वृद्ध तापसको देखा जो पंचाग्नि तप कर रहा था। वह महीपाल नगरका राजा था और पार्श्वनाथका नाना लगता था। अपनी रानीके वियोगसे वह तापस-बन गया था। उसके सात सौ तापस शिष्य थे।
गंगाका सारा प्रदेश, जिसमें वाराणसी भी शामिल थी, वानप्रस्थ तपस्वियोंका गढ़ था। उस प्रदेशमें होत्तिय अग्निहोत्र करते थे। कोत्तिय जमीन पर सोते थे। पोत्तिय कपड़ा पहनते थे। जण्णई यज्ञ करते थे। थालई अपना सब सामान साथ लेकर चलते थे। हुंवोट्ट कुंडिका लेकर चलते थे। दंतुक्खलिय दाँतसे पीसकर कच्चा अन्न खाते थे। मियलुद्धय जीवहत्या करते थे। अंबुवासी, बिलवासी, जलवासी, रुक्खमूला, सेवालभक्खी आदि न जाने कितने प्रकारके तापस इस क्षेत्रमें रहते थे। ... बौद्ध जातकोंमें घोर तपस्याके प्रचलित रूपोंका वर्णन मिलता है। कुछ लोग बराबर झूलते रहते थे। कुछ लोग कण्टकशय्यापर सोते थे। कुछ पंचाग्नि तपते थे। कुछ उकडूं ही बैठे रहते थे। कुछ बराबर स्नान ही करते रहते थे।
पार्श्वकुमार उस महीपाल तापसको नमस्कार किये बिना उसके पास जाकर खड़े हो गये। तापसने उनके इस व्यवहारको बड़ा अपमानजनक माना। उसने बुझती हुई अग्निमें लकड़ी डालने के लिए एक बड़ा लक्कड़ उठाया और कुल्हाड़ीसे काटनेके लिए वह ज्यों ही तैयार हुआ कि अवधिज्ञानी भगवान् पार्श्वनाथने उसे रोका-'इसे मत फाड़ो। इसमें साँप हैं।' मना करने पर भी वह तापस नहीं माना और उसने लकड़ी काट ही डाली । इससे लकड़ीमें बैठे हुए साँप-साँपिनी दोनोंके दो टुकड़े हो गये। प्रभुने दयार्द्र होकर उस सर्प-युगलको णमोकार मन्त्र सुनाया। मन्त्र सुनकर वह सर्प-युगल शान्त भावोंसे मरा और अपनी शुभ भावनाओंके कारण मरकर धरणेन्द्र और पद्मावती बने । कमटका घोर तिरस्कार और अपमान हुआ। वह वहाँसे अन्यत्र चला गया। उसका सारा क्रोध कुमार पावके ऊपर केन्द्रित हो गया। कषाय परिणामोंमें वह निर्मलता नहीं ला सका और मरकर संवर नामका ज्योतिषी देव हुआ। भगवान्की दीक्षा एवं ज्ञानकल्याणक
पार्श्वकुमार जब तीस वर्षके हुए, तब एक दिन अयोध्यानरेश जयसेनने उपहार देकर दूत को भेजा। पार्श्वकुमारने दूतसे अयोध्याके समाचार पूछे । दूत अयोध्याके समाचार सुनाते-सुनाते भगवान् ऋषभदेवका भी चरित सूना गया। सुनते ही पार्श्वनाथको जातिस्मरण ज्ञान हो गया। उन्हें पूर्व जन्मोंकी घटनाओंसे तीस वर्षको अवस्थामें संसारसे वैराग्य हो गया। तत्काल लौकान्तिक देव आये। उन्होंने भगवान्के वैराग्यकी अनुमोदना की। सभी जातिके देवों जौर इन्द्रोंने आकर दीक्षाकल्याणकका अभिषेक किया। तदनन्तर भगवान् पालकीमें बैठकर वाराणसी नगरीके बाहर
१. उत्तरपुराण ७३।९३ । २. आवश्यक सूत्र। ३. उत्तरपुराणमें तापसका नाम महीपाल दिया है। पार्श्वनाथ चरित आदिमें उसका नाम कमठ दिया है।
'कमठ' यह नाम नौ जन्म पहले था, जब पार्श्वनाथका नाम मरुभूति था। चूंकि वैरका प्रारम्भ कमठके जन्मसे हुआ, अतः इस जन्ममें भी कुछ ग्रन्थकारोंने उसका परिचय कमठके नामसे दिया है ।