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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ
किन्तु एक बात स्मरण रखने की है। भक्त जन घाटेमें नहीं रहता। वह पाप और अशुभ संकल्पविकल्पोंको छोड़कर तीर्थ-यात्राके शुभ भावोंमें लीन रहता है। वह अपना समय तीर्थ-वन्दना, भगवान्का पूजन, स्तुति आदिमें व्यतीत करता है। इससे वह पुण्य संचय करता है और पापोंसे बचता है। जब वह आत्माकी
ओर उन्मुख होता है तो कर्मोका क्षय करता है, आत्म-विशुद्धि करता है। अर्थात् स्वकी ओर उपयोग जाता है तो असंख्यात गुनी कर्म-निर्जरा करता है और पर ( भगवान् आदि ) की ओर उपयोग जाता है तो पुण्यानुबन्धी पुण्य संचय करता है । यही है तीर्थ-यात्राका उद्देश्य और तीर्थयात्राका वास्तविक लाभ।
तीर्थ-यात्रासे आत्म-शुद्धि होती है, इस सम्बन्धमें श्री चामुण्डराय 'चारित्रसार' में कहते हैं
तत्रात्मनो विशुद्धध्यानजलप्रक्षालितकर्ममलकलंकस्य स्वात्मन्यवस्थानं लोकोत्तरशुचित्वं, तत्साधनानि सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रतपांसि तद्वन्तश्च साधवस्तदधिष्ठानानि च निर्वाणभूम्यादिकानि । तत्प्राप्त्युपायत्वाच्छुचिव्यपदेशमर्हन्ति ।
(अशुचि अनुप्रेक्षा) अर्थात विशुद्ध ध्यान रूपी जलसे कर्म मलको धोकर आत्मामें स्थित होनेको आत्माकी विशुद्धि कहते हैं । यह विशुद्धि अलौकिक होती है । आत्म-विशुद्धिके लिए सम्यग्दर्शन, सम्यक्-ज्ञान, सम्यक्-चारित्र, सम्यक्तप और इनसे युक्त साधु और उनके स्थान निर्वाणभूमि आदि साधन हैं। ये सब आत्म-शुद्धि प्राप्त करनेके उपाय हैं । इसलिए इन्हें भी पवित्र कहते हैं।
गोम्मटसारमें आचार्य नेमिचन्द्रने कहा है"क्षेत्रमंगलमूर्जयन्तादिकमर्हदादीनां निष्क्रमणकेवलज्ञानादिगुणोत्पत्तिस्थानम् ।"
क्षा ) और केवल-ज्ञानके स्थान आत्मगुणोंकी प्राप्तिके साधन है। तीर्थ-पूजा वसुनन्दी श्रावकाचारमें क्षेत्र-पूजाके सम्बन्धमें महत्त्वपूर्ण उल्लेख मिलता है, जो इस प्रकार है
'जिणजम्मण णिक्खमणे णाणुप्पत्तीए तित्थतिण्हेसु ।
णिसिहीसु खेत्तपूजा पुव्वविहाणेण कायव्वा' ॥४५२॥ अर्थात जिन भगवानकी जन्म कल्याणक भूमि, निष्क्रमण, कल्याणक भूमि, केवलज्ञानोत्पत्ति स्थान, तीर्थचिह्न स्थान और निषीधिका अर्थात् निर्वाण-भूमियोंमें पूर्वोक्त विधानसे की हुई पूजा क्षेत्र-पूजा कहलाती है।
आचार्य गुणभद्र 'उत्तर-पुराण' में बतलाते हैं कि निर्वाण-कल्याणकका उत्सव मनाने के लिए इन्द्रादि देव स्वर्गसे उसी समय आये और गन्ध, अक्षत आदिसे क्षेत्रकी पूजा की और पवित्र बनाया ।
'कल्पानिर्वाणकल्याणमन्वेत्यामरनायकाः । गन्धादिभिः समभ्यर्च्य तत्क्षेत्रमपवित्रयन् ॥
-उत्तर पुराण ६६।६३ पाँचों कल्याण कोंके समय इन्द्र और देव भगवान्को पूजा करते हैं। और भगवान के निर्वाण-गमनके बाद इन कल्याणकोंके स्थान ही तीर्थ बन जाते हैं। वहाँ जाकर भक्त जन भगवान्के चरण चिह्न अथवा मूर्तिकी पूजा करते हैं तथा उस क्षेत्रकी पूजा करते हैं। यही तीर्थ-पूजा कहलाती है। वस्तुतः तीर्थ-पूजा भगवान्का स्मरण कराती है क्योंकि तीर्थ भी भगवान्के स्मारक है । अतः तीर्थ-पूजा प्रकारान्तरसे भगवान्की ही पूजा है। तीर्थ-क्षेत्र और मूर्ति-पूजा
जैन धर्ममें मूर्ति-पूजाके उल्लेख प्राचीनतम कालसे पाये जाते हैं। पूजा पूज्य पुरुषको की जाती है। पूज्य पुरुष मौजूद न हो तो उसकी मूर्ति बनाकर उसके द्वारा पूज्य पुरुषकी पूजा की जाती है। तदाकार