________________
प्राक्कथन
स्थापनाका आशय भी यही है। इसलिए इतिहासातीत कालसे जैन मूर्तियां पायी जाती हैं और जैन मूर्तियोंके निर्माण और उनकी पूजाके उल्लेखसे तो सम्पूर्ण जैन साहित्य भरा पड़ा है। जैन धर्ममें मूर्तियोंके दो प्रकार बतलाये गये हैं-कृत्रिम और अकृत्रिम । कृत्रिम प्रतिमाओंसे अकृत्रिम प्रतिमाओंकी संख्या असंख्य गुणी बतायी है। जिस प्रकार प्रतिमाएं कृत्रिम और अकृत्रिम बतलायी है, उसी प्रकार चैत्यालय भी दो प्रकारके होते हैं-कृत्रिम और अकृत्रिम ।
ये चैत्यालय नन्दीश्वर द्वीप, सुमेरु, कुलाचल, वैताढ्य पर्वत, शाल्मली वृक्ष, जम्बू वृक्ष, वक्षार गिरि, चैत्य वृक्ष, रतिकर गिरि, रुचकगिरि, कुण्डलगिरि, मानुषोत्तर पर्वत, इष्वाकारगिरि, अंजनगिरि, दधिमुख पर्वत, व्यन्तरलोक, स्वर्गलोक, ज्योतिर्लोक और भवनवासियोंके पाताललोकमें पाये जाते हैं । इनकी कुल संख्या ८५६९७४८१ बतलायी गयी है। इन अकृत्रिम चैत्यालयोंमें अकृत्रिम प्रतिमाएँ विराजमान हैं। सौधर्मेन्द्रने युगके आदिमें अयोध्यामें पाँच मन्दिर बनाये और उनमें अकृत्रिम प्रतिमाएँ विराजमान की।
कृत्रिम प्रतिमाओंका जहाँ तक सम्बन्ध है, सर्वप्रथम भरत क्षेत्रके प्रथम चक्रवर्ती भरतने अयोध्या और कैलासमें मन्दिर बनवाकर उनमें स्वर्ण और रत्नोंकी मूर्तियाँ विराजमान करायीं। इनके अतिरिक्त जहाँ पर बाहुबली स्वामीने एक वर्ष तक अचल प्रतिमायोग धारण किया था, उस स्थानपर उन्हींके आकारकी अर्थात् पाँच सौ पचीस धनुषकी प्रतिमा निर्मित करायी। ऐसे भी उल्लेख मिलते हैं कि दूसरे तीर्थकर अजितनाथके कालमें सगर चक्रवर्तीके पुत्रोंने तथा तीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथके तीर्थमें मुनिराज वाली और प्रतिनारायण रावणने कैलास पर्वत पर इन बहत्तर जिनालयोंके तथा रामचन्द्र और सीताने बाहुबली स्वामीकी उक्त प्रतिमाके दर्शन और पूजा की थी।
पुरातात्त्विक दृष्टि से जैन मूर्ति-कलाका इतिहास सिन्धु सभ्यता तक पहुँचता है । सिन्धु घाटीकी खुदाईमें मोहन-जो-दड़ो और हड़प्पासे जो मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं, उनमें मस्तकहीन नग्न मूर्ति तथा सील पर अंकित ऋषभ जिनकी मूर्ति जैन धर्मसे सम्बन्ध रखती हैं। अनेक पुरातत्त्ववेत्ताओंने यह स्वीकार कर लिया है कि कायोत्सर्गासनमें आसीन योगी-प्रतिमा आद्य जैन तीर्थंकर ऋषभदेवकी प्रतिमा है।
भारतमें उपलब्ध जैन मूर्तियोंमें सम्भवतः सबसे प्राचीन जैन मूर्ति तेरापुरके लयणोंमें स्थित पार्श्वनाथकी प्रतिमाएं हैं। इनका निर्माण पौराणिक आख्यानोंके अनुसार कलिंगनरेश करकण्डने कराया था, जो पार्श्वनाथ और महावीरके अन्तरालमें हुआ था। यह काल ईसा पूर्व सातवीं शताब्दी होता है।
इसके बादकी मौर्यकालीन एक मस्तकहीन जिनमूर्ति पटनाके एक मुहल्ले लोहानीपुरसे मिली है। वहाँ एक जैन मन्दिरकी नींव भी मिली है। मूर्ति पटना संग्रहालयमें सुरक्षित है। वैसे इस मूर्तिका हड़प्पासे प्राप्त नग्नमूर्तिके साथ अद्भुत साम्य है।
ईसा पूर्व पहली दूसरी शताब्दीके कलिंगनरेश खारवेल के हाथी-गुंफा शिलालेख से प्रमाणित है कि कलिंगमें सर्वमान्य एक 'कलिंग-जित'की प्रतिमा थी, जिसे नन्दराज ( महापद्मनन्द ) ई. पूर्व. चौथी-पाँचवीं शताब्दी कलिंगपर आक्रमण कर अपने साथ मगध ले गया था। और फिर जिसे खारवेल मगधपर आक्रमण करके वापिस कलिंग ले आया था।
इसके पश्चात् कुषाण काल-( ई. पू. प्रथम शताब्दी तथा ईसाकी प्रथम शताब्दी ) की और इसके बादकी तो अनेक मूर्तियाँ मथुरा, देवगढ़, पभोसा आदि स्थानोंपर मिली हैं। तीर्थ और मूर्तियोंपर समयका प्रभाव - ये मूर्तियाँ केवल तीर्थ क्षेत्रोंपर ही नहीं मिलती, नगरोंमें भी मिलती हैं। तीर्थ क्षेत्रोंपर तीर्थकरोंके कल्याणक स्थानों और सामान्य केवलियोंके केवलज्ञान और निर्वाणस्थानोंपर प्राचीन कालमें, ऐसा लगता है, उनकी मूर्तियां विराजमान नहीं होती थीं। तीर्थंकरों के निर्वाण स्थानको सौधर्मेन्द्र अपने वज्रदण्डसे चिह्नित