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________________ १०५ उत्तरप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ विराजमान कर दी गयी थीं। तीनोंका रंग हलका कत्थई है और शिलापट्ट पर उत्कीर्ण हैं । बायेंसे दायीं ओरको प्रथम शिलाफलकका आकार ३॥ फुट है। बीचमें फणालंकृत पार्श्वनाथ तीर्थंकरकी खड्गासन प्रतिमा है। इसके परिकरमें नीचे एक यक्ष और दो यक्षी हैं जो चँवरवाहक हैं। उनके ऊपर कायोत्सर्ग मुद्रामें १० इंच आकारकी एक तीर्थंकर प्रतिमा है। तथा उसके ऊपर ७ इंच अवगाहनाकी एक पद्मासन प्रतिमा अंकित है। इसी प्रकार दायीं ओर भी दो प्रतिमाएँ हैं। यह शिलाफलक पंचबालयतिका कहलाता है । पाषाण बलुआई है। लेख या लांछन नहीं है। मध्यमें हलके कत्थई रंगकी पद्मासन पार्श्वनाथ प्रतिमा है। ऊपर सर्पफण है। अवगाहना २॥ फुट है । सिंहासनमें सामने दो सिंह जिह्वा निकाले हुए बैठे हैं जो कर्मशत्रुओंके भयानक रूपके प्रतीक हैं। किन्तु चरण-तले बैठनेका अभिप्राय यह है कि तीर्थकरने अपने भयानक कर्मशत्रुओंको चरणोंके नीचे दबाकर कुचल दिया है। __ यक्षी पद्मावती एक बच्चेको गोदमें लिये है। पार्श्वनाथके भामण्डलके दोनों ओर गज उत्कीर्ण हैं, जो गजलक्ष्मीके प्रतीक हैं। उनसे कुछ ऊपर इन्द्र हाथोंमें स्वर्ण कलश लिये क्षीरसागर के पावन जलसे भगवान्का अभिषेक करते प्रतीत होते हैं। फणके ऊपर त्रिछत्र हैं। उसके दोनों ओर शीर्ष कोनों पर देवकुलिकाएं बनी हुई हैं। अलंकरण साधारण ही है किन्तु इसमें कलाकी जो अभिव्यंजना हुई है, उससे दर्शक आकृष्ट हुए बिना नहीं रहता। ____ अन्तिम प्रतिमा खड्गासन है। अवगाहना ३|| फुट है। अधोभागमें दोनों ओर इन्द्र और इन्द्राणी चमर लिये हुए हैं। मध्यमें यक्ष-यक्षी विनत मुद्रामें बैठे हैं। मूर्ति के सिरके दोनों ओर विमानचारी देव हैं। एक विमानमें देव और देवी हैं। दूसरेमें एक देव है। छत्रके एक ओर सिंह और दूसरी ओर हाथीका अंकन है । भामण्डल और छत्रत्रयी हैं। सम्भवतः इन तीनों प्रतिमाओंका निर्माण उस युगमें हुआ है, जब प्रतिमाओंमें अलंकरण और सज्जाका विकास प्रारम्भिक दशामें था। इन प्रतिमाओं पर श्रीवत्स लांछन भी लघु आकार-. में है। पादपीठ पर भी लेख या लांछन नहीं है। इस प्रकारकी शैली गप्तकालके निकट परवर्ती कालमें प्राप्त होती है। अर्थात्, चौथी-पाँचवीं शताब्दीसे आठवीं-नौवीं शताब्दी तक मूर्तिकलाविन्यास उपर्युक्त प्रकारका रहा है। - धर्मशालाके मुख्य द्वारके सामने सड़कके दूसरी ओरका मैदान भी मन्दिरका है। सड़कसे कुछ आगे चलनेपर वह विशाल पक्का कुआँ या वापिका है, जिसके जलकी ख्याति पूर्वकालमें दूर-दूर तक थी। आचार्य जिनप्रभ सूरि ( चौदहवीं शताब्दी ) ने भी 'विविध तीर्थ कल्प' में इस वापिकाकी प्रशंसा की है। मन्दिरके निकट ही रामनगर गाँव है। वहाँ भी एक शिखरबन्द मन्दिर है। इस मन्दिरमें फणमण्डित भगवान् पार्श्वनाथकी श्याम वर्ण पद्मासन प्रतिमा है। इसकी अवगाहना ४ फुट है। प्रतिमा अत्यन्त मनोज्ञ है। फणावलीमें 'अन्यथानुपपन्नत्वं....' श्लोक भी लिखा हुआ है । इस मूर्तिको प्रतिष्ठा वी. सं. २४८१ वैशाख शुक्ला ७ गुरुवारको श्री महावीरजीमें हुई थी। . ... मूलनायकके अतिरिक्त दो पाषाणकी और दो धातुकी प्रतिमाएँ भी हैं। पहले इस मन्दिरके स्थानपर पद्मावती पुरवाल पंचायतकी ओरसे ला.हीरालालजी सर्राफ एटा तथा पं. चम्पालालजी पेंठत निवासीका बनवाया हआ मन्दिर था। बादमें उसके स्थानपर समस्त दिगम्बर समाजकी ओरसे यह मन्दिर बनाया गया। १४
SR No.090096
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1974
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size16 MB
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