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उत्तरप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
१०३ सम्भव है वर्तमानमें जो पार्श्वनाथ-मन्दिर है, वह नवीन मन्दिर हो और जिस स्थानपर किले और टीलेसे प्राचीन जैन-मूर्तियाँ निकली हैं, वहाँ प्राचीन मन्दिर रहा हो। यदि यहाँके टीलों और खण्डहरों की, जो मीलोंमे फैले हुए हैं, खुदाई की जाये, तो हो सकता है कि गहराईमें पार्श्वनाथकालीन जैन मन्दिरके चिह्न और मूर्तियाँ मिल जायें। . ऐसा कोई मन्दिर गुप्तकाल तक तो अवश्य था। शिलालेखों आदिसे इसकी पुष्टि होती है। गुप्तकालके पश्चाद्वर्ती इतिहासमें इस सम्बन्धमें कोई सूत्र उपलब्ध नहीं होता। फिर भी यह तो असन्दिग्ध है कि परवर्ती कालमें भी शताब्दियों तक यह स्थान जैनधर्मका एक विशाल केन्द्र रहा। इस कालमें यहाँ पाषाणकी अनेक जैन प्रतिमाओंका निर्माण हुआ। ऐसी अनेक प्रतिमाएँ, स्तूपोंके अवशेष, मिट्टीकी मूर्तियाँ और कलाकी अन्य वस्तुएँ प्राप्त हुई हैं। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि ये सभी प्रतिमाएँ दिगम्बर परम्परा की हैं। यहाँ श्वेताम्बर परम्पराकी एक भी प्रतिमा न मिलनेका कारण यही प्रतीत होता है कि यहाँ पार्श्वनाथ-कालमें दिगम्बर परम्पराकी ही मान्यता, प्रभाव और प्रचलन रहा है।
प्राचीन अहिच्छत्र एक विशाल नगरी थी। उसके भग्नावशेष आज रामनगरके चारों ओर फलांगोंमें बिखरे पड़े हैं। चीनी यात्री ह्वेन्त्सांगके अनुसार इस नगरका विस्तार उस समय तीन मीलमें था तथा यहाँ अनेक स्तूप भी बने हुए थे।
. एक राज्यके रूपमें इसका अस्तित्व गुप्त-शासन कालमें समाप्त हो गया। उससे पूर्व एक राज्यको राजधानीके रूपमें इसकी ख्याति रही। यहाँ अनेक मित्रवंशीय राजाओंके सिक्के मिले हैं। इन राजाओंमें कई जैन धर्मानुयायी थे। किला - यहाँ मीलोंमें प्राचीन खण्डहर बिखरे पड़े हैं। यहाँ दो टीले विशेष उल्लेखनीय हैं। एक टीलेका नाम ऐचुली-उत्तरिणी है और दूसरा टीला ऐंचुआ कहलाता है। ऐंचुआ टीलेपर एक विशाल और ऊंची कुर्सीपर भूरे बलुई पाषाणका सात फुट ऊँचा एक पाषाण स्तम्भ है। इसके नीचेका भाग पौने तीन फुट तक चौकोर है। फिर पौने तीन फुट तक छह पहलू है। इसके ऊपरका भाग गोल है । कहते हैं, इसके ऊपरके दो भाग गिर गये हैं। इसका ऊपरी भाग देखनेसे ऐसा लगता है कि वह अवश्य ही टूटकर गिरा होगा। कुछ ऐसी भी सम्भावना है कि यह तोड़ा गया हो। ऊपरका भग्न भाग नीचे पड़ा हुआ है। इसकी आकृति तथा टीलेकी स्थितिसे ऐसा प्रतीत होता है कि यह मानस्तम्भ रहा होगा। जन-साधारणमें वहाँ ऐसी भी किंवन्दन्ती है कि यहीं प्राचीनकालमें कोई सहस्रकूट चैत्यालय था। यहाँ खुदाईमें अनेक जैन मूर्तियाँ उपलब्ध हुई हैं। सम्भवतः यहाँ प्राचीनकालमें अनेक जिनमन्दिर और स्तूप रहे होंगे।
कुछ लोग अज्ञानतावश इस पाषाण-स्तम्भको 'भीमकी गदा' कहते हैं। इस प्रकारके अति प्राचीन पाषाण-स्तम्भोंके साथ भी भीमका सम्बन्ध जोड़नेकी एक परम्परा-सी पड़ गयी है। देवरिया जिलेके ककुभग्राम ( वर्तमान कहाऊँ गाँव ) में गुप्तकालका एक मानस्तम्भ पाषाण निर्मित है। उसके अधोभागमें भगवान् पार्श्वनाथकी कायोत्सर्गासन प्रतिमा है और शीर्ष भागपर चार तीर्थंकर प्रतिमाएँ हैं। मध्य भागमें 'ब्राह्मी' लिपिमें एक शिलालेख है, जिसमें इस मानस्तम्भकी प्रतिष्ठाका उल्लेख है। इतना होनेपर भी लोग इसे 'भीमकी लाट' कहते हैं।
- ऐंचुआ टीलेके इस पाषाण-स्तम्भको ‘भीमकी गदा' कहे जानेके सम्बन्धमें एक कहानी भी