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भारत के दिगम्बर जैन तीर्थं
पार्श्वनाथ सम्बन्धी इस घटनाका एक सांस्कृतिक महत्त्व भी है। इस घटनाने जैनकलाको - विशेषतः जैन मूर्तिकलाको बड़ा प्रभावित किया । पार्श्वनाथकी प्रतिमाओंका निर्माण इस घटना के कारण ही कुछ भिन्न शैलीमें होने लगा । चौबीस तीर्थंकरोंकी प्रतिमाएँ अपने आसन, मुद्रा, ध्यान आदि दृष्टिसे सभी एक समान होती हैं। उनकी पहचान और अन्तर उनके आसनपर अंकित किये ये चिह्न द्वारा ही किया जा सकता है । केवल पार्श्वनाथकी प्रतिमाएँ अन्य तीर्थंकर - प्रतिमाओंसे एक बात निराली हैं । अरहन्त दशाकी प्रतिमा होते हुए भी उनके सिरपर सर्प-फण रहता है, जो हमें सदा ही कमठ द्वारा घोर उपसर्ग करनेपर नागेन्द्र द्वारा पार्श्वनाथके ऊपर सर्प - फणके छत्र ताननेका स्मरण दिलाता रहता है। इतना ही नहीं, अनेक पार्श्वप्रतिमाएँ इस घटनाके स्मारक रूपमें धरणेन्द्र- पद्मावती के साथ निर्मित होने लगीं और इसीलिए जैन साहित्यमें इस इन्द्रदम्पतिकी ख्याति पार्श्वनाथके भक्त यक्ष-यक्षिणी के रूपमें विशेष उल्लेख योग्य हो गयी ।
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यह घटना अपने रूपमें साधारण थी । अवश्य ही इस घटनाके प्रत्यक्षदर्शी व्यक्ति भी वहाँ रहे होंगे। उनके मुखसे जब सत्य घटना जन-जनके कानोंमें पहुँची होगी, तब उन सबका हृदय निष्काम वीतराग भगवान् पार्श्वनाथके चरणोंमें श्रद्धाप्लावित हो उठा होगा और उनके दर्शनोंके लिए वहाँ असंख्य जन- मेदिनी एकत्रित हुई होगी । फिर यह कैसा अलौकिक संयोग कि तभी भगवान्का केवलज्ञान महोत्सव हुआ और समवसरण लगा। वहाँ भगवान्का उपदेश हुआ । उस प्रथम उपदेश को ही सुनकर वे भगवान् के उपासक बन गये और जब भगवान्का वहाँसे विहार हो गया, तब सबने मिलकर प्रभुकी स्मृति सुरक्षित रखनेके लिए वहाँ एक विशाल मन्दिरका निर्माण कराया । यहाँ क्षेत्र से दो मील दूर एक प्राचीन किला है, जिसे महाभारतकालीन कहा जाता है । इस किले के निकट ही कटारीखेड़ा नामक टीलेसे एक प्राचीन स्तम्भ मिला है। उस स्तम्भपर एक लेख है । इसमें महाचार्य इन्द्रनन्दिके शिष्य महादरिके द्वारा पार्श्वपति (पार्श्वनाथ) के मन्दिरमें दान देनेका उल्लेख है । यह लेख पार्श्वनाथ मन्दिरके निकट ही मिला है। इस टीले और किलेसे कई जैन मूर्तियाँ मिली हैं । कई मूर्तियोंको ग्रामीण लोग ग्रामदेवता मानकर अब भी पूजते हैं ।
व ॥ अन्ता – प्रियबन्धु सुख - राज्यं गेय्युत्तमिरे तत्समयदोळु पार्श्वभट्टारकर्गे केवल ज्ञानोत्पत्ति यागे सौधर्मेन्द्र बन्दुकेवलिपूजेयं माडे प्रियबन्धु तानुं भक्तियि बन्दु पूजेयं माडलातन भक्तिगिन्द्रं मेच्चि दिव्यवप्पदु-तोडगेगलं कोट्टु निम्मन्वय दोळु मिथ्यादृष्टि गलागलोडं अदृश्यंग लक्कुमेन्दु पेळुदु विजयपुरक्क हिच्छत्र मेम्ब पेसरनिट्टु दिविजेन्द्रं पोपुदुमित्तलु गंगान्वयं सम्पूर्ण चन्द्रनन्ते पेच्चि वर्तित्तमिरे तदन्वयदोळुकम्प - महीपतिगे पद्मनाभनेम्ब मगं पुट्टि |
— कल्लूरगुड्डु ( शिमोगा परगना ) में सिद्धेश्वर मंदिरकी पूर्व दिशामें पड़े हुए पाषाणपर लेख - ( शक १०४३ - ११२१ ई० )
— जैन शिलालेख संग्रह, भाग द्वितीय, पृष्ठ ४१०-११
अर्थ — जब नेमीश्वरका तीर्थ चल रहा था, उस समय राजा विष्णुगुप्तका जन्म हुआ। वह राजा अहिच्छत्रपुर में राज्य कर रहा था । उसी समय नेमि तीर्थंकरका निर्वाण हुआ । उसने ऐन्द्रध्वज पूजा की । देवेन्द्रने उसे ऐरावत हाथी दिया ।.... उनके वशमें प्रियबन्धु हुआ। जिस समय वह शान्तिसे राज्य कर रहा था, उस समय पार्श्व भट्टारकको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। इसी अक्सरपर स्वयं प्रियबन्धुने आकर केवलज्ञानकी पूजा की । उसकी श्रद्धासे प्रसन्न होकर इन्द्रने पाँच आभरण उसे दिये और कहा— अगर तुम्हारे वंशमें कोई मिथ्यामतका माननेवाला उत्पन्न होगा तो ये आभरण लुप्त हो जायेंगे । यों कहकर और अहिच्छत्रका विजयपुर नाम रखकर इन्द्र चला गया ।