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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ
यह ज्ञातव्य है कि उपर्युक्त श्लोकके आधारपर ही आचार्य पात्रकेशरीने 'त्रिलक्षणकदर्थन' नामक महत्त्वपूर्ण दार्शनिक ग्रन्थकी रचना की थी। - इसी प्रकारकी एक दूसरी चमत्कारपूर्ण घटनाका उल्लेख 'आराधनासार कथाकोष' ( कथा ९० ) में उपलब्ध होता है। . उस समय इस नगरका शासक वसुपाल T। उसकी रानीका नाम वसूमती था। राजाने एक बार अहिच्छत्र नगरमें बड़ा मनोज्ञ सहस्रकूट चैत्यालयका निर्माण कराया और उसमें पार्श्वनाथ भगवान् की प्रतिमा स्थापित करायी। राजाकी आज्ञासे एक लेपकार मूर्तिके ऊपर लेप लगानेको नियुक्त हुआ। लेपकार मांसभक्षी था। वह दिनमें जो लेप लगाता था रातमें गिर जाता था। इस प्रकार कई दिन बीत गये। लेपकारपर राजा बहुत क्रुद्ध हुआ और उसे दण्डित कर निकाल दिया। एक दिन एक अन्य लेपकार आया। अकस्मात् उसकी भावना हुई और उसने मुनिके निकट जाकर कुछ नियम लिये, पूजा रचायी। दूसरे दिनसे उसने जो लेप लगाया, वह फिर मानो वज्रलेप' बन गया।
यहाँ क्षेत्रपर एक प्राचीन शिखरबन्द मन्दिर है। उसमें एक वेदी तिखालवाले बाबाको है। इस वेदीमें हरित पन्नाकी भगवान् पार्श्वनाथकी एक मूर्ति है तथा भगवान्के चरण विराजमान हैं। इस तिखालके सम्बन्धमें बहुत प्राचीनकालसे एक किंवदन्ती प्रचलित है। कहा जाता है कि जब इस मन्दिरका निर्माण हो रहा था, उन दिनों एक रात लोगोंको ऐसा लगा कि मन्दिरके भीतर चिनाईका कोई काम हो रहा है। ईंटोंके काटने-छाँटनेकी आवाज स्पष्ट सुनाई दे रही थी। लोगोंके मनमें दुःशंकाएँ होने लगी और उन्होंने उसी समय मन्दिर खोलकर देखा तो वहाँ कुछ नहीं था। अलबत्ता एक आश्चर्य उनकी दृष्टिसे छिपा नहीं रह सका। वहाँ एक नयी दोवाल बन चुकी थी, जो सन्ध्या तक नहीं थी और उसमें एक तिखाल बना हुआ था। अवश्य ही किन्हीं अदृश्य हाथों द्वारा यह रचना हुई थी। तभीसे लोगोंने इस वेदीकी मूर्तिका नाम 'तिखालवाले बाबा' रख दिया। कहते हैं, जिनके अदृश्य हाथोंने कुछ क्षणोंमें एक दीवार खड़ी करके भगवान्के लिए तिखाल बना दिया, वे अपने आराध्य प्रभुके भक्तोंकी प्रभुके दरबारमें हाज़िर होने पर मनोकामना भी पूरी करते हैं।
यहाँके एक कुएँके जलमें भी विशेषता है। उसके पीनेसे अनेक प्रकारके रोग शान्त हो जाते हैं। सुनते हैं कि प्राचीनकालमें आसपासके राजा और नवाब इस कुएँका जल मँगाकर काममें लाते थे।
__आचार्य जिनप्रभ सूरिने 'विविध तीर्थकल्प' के अहिच्छत्र-कल्पमें लिखा है-संख्यावती नगरीमें भगवान पार्श्वनाथ कायोत्सर्ग धारण कर खड़े हुए थे। पूर्व निबद्ध वैर के कारण असुर कमठने उनपर नाना प्रकारके उपसर्ग किये। भगवान् द्वारा विगत जन्म में किये हुए उपकारका स्मरण कर नागराज धरणेन्द्र अपनी देवी पद्मावतीके साथ वहाँ आया और भगवानके ऊपर सहस्र फण फैलाकर उपसर्ग निवारण किया। तबसे इस नगरीका नाम 'अहिच्छत्र' पड़ गया। (तओ परं तीस' नयरीए अहिच्छत्त ति नाम संजायं। ) वहाँ बने हुए प्राकारमें वह उरगरूपो धरणेन्द्र कुटिल गतिसे जहाँसे गया, वहाँ ईंटोंकी रचना करता गया। कहीं-कहीं अब भी उस प्राकारमें ईंटोंकी वह रचना दिखाई पड़ती है। संघने वहाँ पार्श्वनाथ स्वामीका एक विशाल मन्दिर बनवाया।
१. मुनि श्रीचन्दकृत कहाकोसु, सन्धि ६, कडवक ९, पृ. ६६ ।