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उत्तरप्रदेश के दिगम्बर जैन तीर्थं
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अतिशय क्षेत्र
भगवान् पार्श्वनाथ के सिरपर धरणेन्द्र द्वारा सर्प फण लगाने और भगवान्को केवलज्ञान उत्पन्न होनेके पश्चात्, लगता है, यहाँकी मिट्टीमें ही कुछ अलौकिक अतिशय आ गया । यहाँपर पश्चाद्वर्ती कालमें अनेक ऐसी चमत्कारपूर्ण घटनाएँ घटित होनेका वर्णन जैन साहित्य में अथवा अनुश्रुतियोंमें उपलब्ध होता है । इन घटनाओंमें आचार्य पात्रकेशरीकी घटना तो सचमुच ही विस्मयकारी है। आचार्य पात्रकेशरीका समय छठी सातवीं शताब्दी माना जाता । ( स्व. पं. जुगलकिशोर मुख्तार और स्व. प्रो. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य के मतानुसार आचार्य पात्रकेशरीका आनुमानिक समय छठी शताब्दीका अन्तिम अथवा सातवीं शताब्दीका प्रारम्भिक काल है । ) वे इसी पावन नगरीके निवासी थे । उस समय नगरके शासक अवनिपाल थे । उनके दरबार में पाँच सौ ब्राह्मण विद्वान् थे, जो प्रायः तात्त्विक गोष्ठी किया करते थे । पात्रकेशरी इनमें सर्वप्रमुख थे । एक दिन यहाँके पार्श्वनाथ मन्दिरमें ये विद्वान् गोष्ठी के निमित्त गये। वहाँ एक मुनि, जिनका नाम चारित्रभूषण था, आचार्य समन्तभद्र विरचित देवागम स्तोत्रका पाठ कर रहे थे । पात्रकेशरी ध्यानपूर्वक उसे सुन रहे थे। उनके मनकी अनेक शंकाओंका समाधान स्वतः होता गया । उन्होंने पाठ समाप्त होनेपर मुनिराजसे स्तोत्र दुबारा पढ़नेका अनुरोध किया । मुनिराजने दुबारा स्तोत्र पढ़ा। पात्रकेशरी उसे सुनकर अपने घर चले गये और गहराई से तत्त्व - चिन्तन करने लगे । उन्हें अन्य दर्शनोंकी अपेक्षा जैन दर्शन सत्य लगा । किन्तु अनुमान प्रमाणके सम्बन्धमें उन्हें अपनी शंकाका समाधान नहीं मिल पा रहा था। इससे उनके चित्तमें कुछ उद्विग्नता थी ।
तभी पद्मावतीदेवी प्रगट हुई और बोली - 'विप्रवर्य ! तुम्हें अपनी शंकाका उत्तर कल प्रातः पार्श्वनाथ प्रभुकी प्रतिमा द्वारा प्राप्त हो जायेगा ।' दूसरे दिन पात्रकेशरी पार्श्वनाथ मन्दिरमें पहुँचे । जब उन्होंने प्रभुकी मूर्तिकी ओर देखा तो उनके आश्चर्यका ठिकाना नहीं रहा । पार्श्वनाथ प्रतिमा फणपर निम्नलिखित कारिका लिखी हुई थी
अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ॥
कारिकाको पढ़ते ही उनकी शंकाका समाधान गया। उन्होंने जैनधर्मको सत्य धर्मं स्वीकार कर उसे अंगीकार कर लिया। तत्पश्चात् वे जैनमुनि बन गये । अपनी प्रकाण्ड प्रतिभा कारण जैन दार्शनिक परम्पराके प्रमुख आचार्यों में उनकी गणना की जाती है ।
- आराधना कथाकोष, कथा - १
पात्रकेशरीके पश्चाद्वर्ती सभी दार्शनिक जैन आचार्योंने अपने ग्रन्थोंमें और जैन राजाओंने शिलालेखोंमें इस घटनाका बड़े आदरपूर्वक उल्लेख किया है । वादिराज सूरिके 'न्यायविनिश्चयालंकार' नामक भाष्यमें उल्लेख है कि यह श्लोक पद्मावती देवीने तीर्थंकर सीमन्धर स्वामीके समवसरणमें जाकर गणधरदेव के प्रसाद से प्राप्त किया था ।
श्रवणबेलगोल 'मल्लिषेण प्रशस्ति' नामक शिलालेख ( नं. ५४/६७ ) में, जो शक सं. १०५० का है, लिखा है
महिमा सपात्रकेसरिगुरोः परं भवति यस्य भक्त्यासीत् । पद्मावतीसहाया त्रिलक्षण - कदर्थनं
कर्तुम् ॥
उन पात्रकेशरी गुरुका बड़ा माहात्म्य है जिनकी भक्तिके वश होकर पद्मावती देवीने 'त्रिलक्षण- कदर्थन' की रचनामें उनकी सहायता की ।