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________________ उत्तरप्रदेश के दिगम्बर जैन तीर्थं ९९ अतिशय क्षेत्र भगवान् पार्श्वनाथ के सिरपर धरणेन्द्र द्वारा सर्प फण लगाने और भगवान्‌को केवलज्ञान उत्पन्न होनेके पश्चात्, लगता है, यहाँकी मिट्टीमें ही कुछ अलौकिक अतिशय आ गया । यहाँपर पश्चाद्वर्ती कालमें अनेक ऐसी चमत्कारपूर्ण घटनाएँ घटित होनेका वर्णन जैन साहित्य में अथवा अनुश्रुतियोंमें उपलब्ध होता है । इन घटनाओंमें आचार्य पात्रकेशरीकी घटना तो सचमुच ही विस्मयकारी है। आचार्य पात्रकेशरीका समय छठी सातवीं शताब्दी माना जाता । ( स्व. पं. जुगलकिशोर मुख्तार और स्व. प्रो. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य के मतानुसार आचार्य पात्रकेशरीका आनुमानिक समय छठी शताब्दीका अन्तिम अथवा सातवीं शताब्दीका प्रारम्भिक काल है । ) वे इसी पावन नगरीके निवासी थे । उस समय नगरके शासक अवनिपाल थे । उनके दरबार में पाँच सौ ब्राह्मण विद्वान् थे, जो प्रायः तात्त्विक गोष्ठी किया करते थे । पात्रकेशरी इनमें सर्वप्रमुख थे । एक दिन यहाँके पार्श्वनाथ मन्दिरमें ये विद्वान् गोष्ठी के निमित्त गये। वहाँ एक मुनि, जिनका नाम चारित्रभूषण था, आचार्य समन्तभद्र विरचित देवागम स्तोत्रका पाठ कर रहे थे । पात्रकेशरी ध्यानपूर्वक उसे सुन रहे थे। उनके मनकी अनेक शंकाओंका समाधान स्वतः होता गया । उन्होंने पाठ समाप्त होनेपर मुनिराजसे स्तोत्र दुबारा पढ़नेका अनुरोध किया । मुनिराजने दुबारा स्तोत्र पढ़ा। पात्रकेशरी उसे सुनकर अपने घर चले गये और गहराई से तत्त्व - चिन्तन करने लगे । उन्हें अन्य दर्शनोंकी अपेक्षा जैन दर्शन सत्य लगा । किन्तु अनुमान प्रमाणके सम्बन्धमें उन्हें अपनी शंकाका समाधान नहीं मिल पा रहा था। इससे उनके चित्तमें कुछ उद्विग्नता थी । तभी पद्मावतीदेवी प्रगट हुई और बोली - 'विप्रवर्य ! तुम्हें अपनी शंकाका उत्तर कल प्रातः पार्श्वनाथ प्रभुकी प्रतिमा द्वारा प्राप्त हो जायेगा ।' दूसरे दिन पात्रकेशरी पार्श्वनाथ मन्दिरमें पहुँचे । जब उन्होंने प्रभुकी मूर्तिकी ओर देखा तो उनके आश्चर्यका ठिकाना नहीं रहा । पार्श्वनाथ प्रतिमा फणपर निम्नलिखित कारिका लिखी हुई थी अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ॥ कारिकाको पढ़ते ही उनकी शंकाका समाधान गया। उन्होंने जैनधर्मको सत्य धर्मं स्वीकार कर उसे अंगीकार कर लिया। तत्पश्चात् वे जैनमुनि बन गये । अपनी प्रकाण्ड प्रतिभा कारण जैन दार्शनिक परम्पराके प्रमुख आचार्यों में उनकी गणना की जाती है । - आराधना कथाकोष, कथा - १ पात्रकेशरीके पश्चाद्वर्ती सभी दार्शनिक जैन आचार्योंने अपने ग्रन्थोंमें और जैन राजाओंने शिलालेखोंमें इस घटनाका बड़े आदरपूर्वक उल्लेख किया है । वादिराज सूरिके 'न्यायविनिश्चयालंकार' नामक भाष्यमें उल्लेख है कि यह श्लोक पद्मावती देवीने तीर्थंकर सीमन्धर स्वामीके समवसरणमें जाकर गणधरदेव के प्रसाद से प्राप्त किया था । श्रवणबेलगोल 'मल्लिषेण प्रशस्ति' नामक शिलालेख ( नं. ५४/६७ ) में, जो शक सं. १०५० का है, लिखा है महिमा सपात्रकेसरिगुरोः परं भवति यस्य भक्त्यासीत् । पद्मावतीसहाया त्रिलक्षण - कदर्थनं कर्तुम् ॥ उन पात्रकेशरी गुरुका बड़ा माहात्म्य है जिनकी भक्तिके वश होकर पद्मावती देवीने 'त्रिलक्षण- कदर्थन' की रचनामें उनकी सहायता की ।
SR No.090096
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1974
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size16 MB
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