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________________ ९८ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ उसका नाम अब संवर था। उसी देवने अब मुनि पार्श्वनाथसे अपने पूर्व वैरका बदला लिया। धरणेन्द्र और पद्मावतीने आकर प्रभुके चरणोंमें नमस्कार किया। धरणेन्द्रने सर्पका रूप धारण करके पाश्वनाथको ऊपर उठा लिया और सहस्र फणका मण्डप बनाकर उनके ऊपर तान दिया। देवी पद्मावती भक्तिके उल्लासमें वज्रमय छत्र तानकर खड़ी हो गयी। इससे संवरदेव पार्श्वनाथके साथ-साथ धरणेन्द्र और पद्मावतीके ऊपर भी क्षुब्ध हो उठा। उसने उनके ऊपर भी नाना प्रकारके कर्कश वचनोंसे प्रहार किया। इतना ही नहीं, 'आँधी, जल, वर्षा, उपलवर्षा आदि द्वारा भी घोर उपद्रव करने लगा। किन्तु पार्श्वनाथ तो इन उपद्रवों, रक्षाप्रयत्नों और क्षमा-प्रसंगोंसे निर्लिप्त रहकर आत्मध्यानमें लीन थे। उन्हें तभी केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। वह चैत्र कृष्ण चतुर्थीका दिन था। इन्द्रों और देवोंने आकर भगवान्के ज्ञानकल्याणककी पूजा की। ____ जब इन्द्रने वहाँ अपार जल देखा तो उसने इसके कारणपर विचार किया। वह संवरदेवपर अति क्रुद्ध हुआ। संवरदेव भयके मारे काँपने लगा। इन्द्रने कहा-तेरी रक्षाका एक ही उपाय है कि तू प्रभसे क्षमा याचना कर। संवर प्रभके चरणोंमें जा गिरा। तत्पश्चात् इन्द्रकी आज्ञासे धनपति कुबेरने वहींपर समवसरणकी रचना की और भगवान् पार्श्वनाथका वहाँपर प्रथम जगत्कल्याणकारी उपदेश हुआ। नागेन्द्र द्वारा भगवानके ऊपर छत्र लगाया गया था, इस कारण इस स्थानका नाम संख्यावतीके स्थानपर अहिच्छत्र हो गया। साथ ही भगवान्के केवलज्ञान कल्याणककी भूमि होनेके कारण यह पवित्र तीर्थक्षेत्र हो गया। - मुनि श्रीचन्द कृत 'कहाकोसु' नामक अपभ्रंश कथाकोष ( सन्धि ३३ कडवक १ से ५ पृष्ठ ३३३ से ३३५ ) में यहाँके एक व्यक्तिकी कथा आती है, जो इस प्रकार हैउन अहिच्छत्रपुर नगरमें शिवभूति विप्र रहता था। उसके दो पुत्र थे-सोमशर्मा और शिवशर्मा। छोटे पुत्रका मन पढ़ने में नहीं लगता था। इससे पिता उसे कोड़ोंसे पीटा करता था और उसका नाम वारत्रक रख दिया था। शिवशर्माको इससे इतनी मानसिक ग्लानि हई कि वह घरसे निकल गया और दमवर मुनिके पास दिगम्बर निर्ग्रन्थ मुनि बन गया। एक दिन गुरुसे उसने अपनी मृत्युके सम्बन्धमें पूछा। गुरु बोले-महिलाके निमित्तसे तुम्हारी मृत्यु होगी। यह सुनकर शिवशर्मा एकान्त वनमें जाकर तपस्या करने लगा। वनदेवियाँ उन्हें आहार देती थीं। - एक दिन गंगदेव नट अपनी पुत्री मदनवेगा और साथियोंके साथ उसी वनमें आकर ठहरा। मुनिकी दृष्टि मदनवेगापर पड़ी। वह देखते ही उसपर मोहित हो गया । मदनवेगाकी भी यही दशा हुई। नटने दोनोंका विवाह कर दिया। अब शिवशर्मा नट-मण्डलीके साथ रहने लगा। . एक बार नट-मण्डली भ्रमण करती हुई अहिच्छत्रपुर आयी। संयोगसे शिवशर्माकी भेंट अपने पूर्व गुरु मनि दमवरसे हो गयी। उन्होंने उसे समझाया और जो अनुचित कृत्य किया है, उसके त्यागका उपदेश दिया। गुरुका उपदेश सुनकर उसे भी अपने कृत्यपर पश्चात्ताप हुआ। उसने प्रायश्चित्त लेकर पुनः मुनि दीक्षा ले ली। घोर तप किया। वराडदेशकी वेन्नातटपुरमें जाकर उसे मोक्ष हो गया। १. पासनाह चरिउ।
SR No.090096
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1974
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size16 MB
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