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अहिच्छत्र
स्थिति
अहिच्छत्र उत्तरप्रदेशके बरेली जिलेकी आंवला तहसीलमें स्थित है । दिल्लीसे अलीगढ़ १२६ कि. मी. तथा अलीगढ़से बरेली लाइनपर ( चन्दौसीसे आगे ) आँवला स्टेशन १३५ की. मी. है। आंवला स्टेशन से अहिच्छत्र क्षेत्र सड़क द्वारा १८ कि. मी. है। आँवलासे अहिच्छत्र तक पक्की सड़क है। स्टेशनपर ताँगे मिलते हैं। इसके अतिरिक्त इसी रेलवे लाइनपर करेंगी स्टेशन से यह ८ कि. मी. तथा रेवती बहोड़ा खेड़ा स्टेशनसे ५ कि. मी. पूर्व दिशामें पड़ता है । किन्तु आँवला स्टेशनपर उतरना अधिक सुविधाजनक है । इसका पोस्ट ऑफिस रामनगर है ।
कल्याणक क्षेत्र
अहिच्छत्र आजकल रामनगर गाँवका एक भाग है। इसको प्राचीन कालमें संख्यावती नगरी कहा जाता था । एक बार भगवान् पार्श्वनाथ मुनि-दशामें विहार करते हुए संख्यावती नगरी बाहर उद्यानमें पधारे और वहाँ प्रतिमा योग धारण करके ध्यानलीन हो गये । संयोगवश संवर नामक एक देव विमान द्वारा आकाश मार्गंसे जा रहा था । ज्यों ही विमान पार्श्वनाथके ऊपरसे गुजरा कि वह वहीं रुक गया । उग्र तपस्वी ऋद्धिधारी मुनिको कोई सचेतन या अचेतन वस्तु लाँघकर नहीं जा सकती । संवरदेवने इसका कारण जाननेके लिए नीचेकी ओर देखा । पार्श्वनाथको देखते ही जन्म-जन्मान्तरोंके वैरके कारण वह क्रोधसे भर गया । विवेकशून्य हो वह अपने पिछले जीवनमें पार्श्वनाथके हाथों हुए अपमानका प्रतिशोध लेनेको आतुर हो उठा और अनेक प्रकारके भयानक उपद्रव कर उन्हें त्रास देनेका प्रयत्न करने लगा । किन्तु स्वात्मलीन पार्श्वनाथपर इन उपद्रवोंका रंचमात्र भी प्रभाव नहीं पड़ा । न वे ध्यानसे चल-विचल हुए और न उनके मनमें आततायीके प्रति दुर्भाव ही आया। तभी नागकुमार देवोंके इन्द्र धरणेन्द्र और उसकी इन्द्राणी पद्मावती के आसन कम्पित हुए। वे पूर्व जन्म में नाग-नागिन थे । संवर देव कर्मठ तपस्वी था । पार्श्वनाथ उस समय राजकुमार थे। जब पार्श्वकुमार सोलह वर्षके किशोर थे, तब गंगा-तटपर . सेना के साथ हाथी पर चढ़कर वे भ्रमणके लिए निकले। उन्होंने एक तपस्वीको देखा, जो पंचाग्नि तप कर रहा था । कुमार पार्श्वनाथ अपने अवधिज्ञानके नेत्रसे उसके इस विडम्बनापूर्ण तपको देख रहे थे । इस तपस्वीका नाम महीपाल था और यह पार्श्वकुमारका नाना था । पार्श्वकुमार ने उसे नमस्कार नहीं किया । इससे तपस्वी मनमें बहुत क्षुब्ध था । उसने लकड़ी काटनेके लिए अपना फरसा उठाया ही था कि भगवान् पार्श्वनाथने मना किया 'इसे मत काटो, इसमें जीव है ।' किन्तु उनके मना करनेपर भी उसने लकड़ी काट डाली । इससे लकड़ीके भीतर रहनेवाले सर्प और सर्पिणीके दो टुकड़े हो गये। परम करुणाशील पार्श्वप्रभुने असह्य वेदनामें तड़फते हुए उन सर्पसर्पिणीको णमोकार मन्त्र सुनाया । मन्त्र सुनकर वे अत्यन्त शान्त भावसे साथ मरे और नागकुमार देवोंके इन्द्र और इन्द्राणीके रूपमें धरणेन्द्र और पद्मावती हुए । महीपाल अपनी सार्वजनिक अप्रतिष्ठा की ग्लानिमें अत्यन्त कुत्सित भावोंके साथ मरा और ज्योतिष्क जातिका देव बना
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