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________________ उत्तरप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ मानसरोवर-हिमालयको पार करनेके बाद तिब्बती पठारमें ३० मील जानेपर दो विशाल सरोवर मिलते हैं १. राक्षसताल, २. मानसरोवर । आकारमें राक्षसताल विशाल है और मानसरोवर गोलाकार बना हुआ है। यह लगभग २२ मीलमें फैला हुआ है। दोनों सरोवरोंके बीचमें उठी हुई पर्वत भूमि है। . मानसरोवरमें 'राजहंस' और सामान्य हंस विपुल संख्यामें मिलते हैं। मानसरोवरसे प्रत्यक्षतः कोई नदी नहीं निकली है, किन्तु अन्वेषकोंका मत है कि सरयू और ब्रह्मपुत्र नदियाँ इसमें से निकलती हैं। सम्भवतः भूमिके भीतरी मार्गसे इसका जल मीलों दूर जाकर इन नदियोंके स्रोतके रूपमें प्रगट होता है। मानसरोवर या कैलाशपर कोई वृक्ष, पुष्प आदि नहीं हैं। उसमें मोती हैं या नहीं, यह कहना तो कठिन है, किन्तु इसके किनारेपर रंग-बिरंगे पत्थर और स्फटिकके टुकड़े अवश्य मिलते हैं। श्रीनगर मार्ग उत्तर रेलवेके मुरादाबाद-सहारनपुर मुख्य लाइनके नजीबाबाद स्टेशनसे श्रीनगर बसमार्गसे कोटद्वार होते हुए सौ मील दूर है, तथा ऋषिकेशसे बस द्वारा ६७ मील दूर है। यह नगर हिमालयमें अलकनन्दाके तटपर बसा हुआ है। यहाँ अलकनन्दा नदी धनुषाकार हो गयी है। श्री दिगम्बर जैन मन्दिर भी अलकनन्दाके तटपर अवस्थित है। यात्रियोंके ठहरनेके लिए मन्दिरके बाहर नद्यावर्त अतिथिभवन है। इतिहास सम्पूर्ण हिमालय पर्वत आद्य तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेवका विहार स्थल रहा है। पुराण साहित्यसे यह ज्ञात होता है कि भगवान् ऋषभदेवने अनेक वर्षों तक हिमालय ( कैलास पर्वत ) में तपस्या की, केवलज्ञान प्राप्तिके पश्चात् कई बार भगवान्का समवशरण भी इस पर्वतपर आया और अन्तमें कर्म क्षय करके वे हिमालयसे ही मुक्त हुए। उनके अतिरिक्त अनेक मुनियोंने पावनतोया गंगा नदीके एकान्त तटपर हिमालयकी शिलाओंपर बैठकर तपस्या की। भरत, बाहुबली, भगीरथ आदि अनेक मुनियोंने यहींसे निर्वाण प्राप्त किया। भगवान् पार्श्वनाथका भी एक बार समवशरण यहाँ आया था और उनके आत्मकल्याणकारी उपदेश सुनकर अनेक व्यक्तियोंने जैनधर्म अंगीकार किया था। इसी कारण अनेक शताब्दियों तक जैनधर्म और उसके अनुयायियोंको हिमालयके अंचलमें प्रभाव रहा है। श्रीनगरके निकटवर्ती नगरोंमें अब भी डिमरी, चौधरी आदि अनेक जातियोंके लोग रहते हैं, जिनमें अब तक जैन संस्कार पाये जाते हैं। इससे प्रतीत होता है कि इनके पूर्वज अवश्य जैन धर्मानुयायी रहे होंगे। किन्तु किन्हीं परिस्थितियोंके कारण वे जैनधर्म और उसके अनुयायियोंके सम्पर्कसे सर्वथा पृथक् हो गये। लेकिन इतना तो निश्चित ही है कि हिमालयके कण-कणमें लोकवंद्य तीर्थंकरों और मुनियोंकी चरण-धूलि मिली हुई है और यहाँका कण-कण पावन तीर्थ है। ____ श्रीनगरका जैन मन्दिर भी प्राचीन कालमें एक प्रसिद्ध तीर्थ रहा है। श्रीनगर किसी समय पौड़ी गढ़वालकी राजधानी था। अपनी भौगोलिक स्थिति और ऐतिहासिक कारणोंसे उत्तराखण्डके
SR No.090096
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1974
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size16 MB
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