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________________ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ प्रमुख नगरों में इसकी गणना रही है। यह व्यापारका बहुत बड़ा केन्द्र रहा है। अतः यह स्वाभाविक है कि यहाँपर तथा पाश्र्ववर्ती नगरोंमें जैनोंकी प्रचुर संख्या रही। इस बातके प्रमाण प्राप्त हए हैं कि यहाँके जैन मन्दिरकी मान्यता जैनतीर्थके रूपमें रही, तथा बदरीनाथ आदि जैन तीर्थोंको जानेवाले जैन यात्री इस तीर्थके दर्शनार्थ आते रहे। उद्दाम विरहीने सन् १८९४ में श्रीनगरको ध्वस्त कर दिया और इस ध्वंस-लीलासे यह जैनतीर्थ भी नहीं बच पाया। किन्तु प्रतिमाएँ सुरक्षित रहीं। स्व. लाला प्रतापसिंह जैन और स्व. लाला मनोहरलाल जैनके संयुक्त प्रयाससे ध्वस्त मन्दिरका पुनर्निर्माण हुआ। इस कालमें जो मन्दिर बनाया गया, वह शिल्प-चातुर्य और कलापूर्ण वास्तु-विधानको दृष्टिले अत्यन्त समृद्ध है । सम्भवतः उत्तराखण्डका कोई मन्दिर श्रीनगरके जैन मन्दिरके समुन्नत, सूक्ष्म शिल्प विधान और भव्य चित्रकारीसे समता नहीं कर सकता। लगता है, यहाँका प्रत्येक पाषाण सजीव है। अतिशय इस मन्दिरमें केवल एक वेदी है, जिसपर तीन प्रतिमाएँ विराजमान हैं-मूलनायक भगवान् ऋषभदेवकी और दो भगवान् पार्श्वनाथकी। तीनों ही पद्ममासन प्रतिमाएँ हैं और प्रभावक हैं। पाषाणका सूक्ष्म निरीक्षण करनेसे ज्ञात होता है कि ये प्रतिमाएँ लगभग पन्द्रह सौ वर्ष प्राचीन होंगी। इनमें भगवान पार्श्वनाथकी कृष्ण पाषाणकी पद्मासन प्रतिमा तो चतुर्थ कालकी बतायी जाती है जो अत्यन्त सातिशय है। भक्तोंकी मान्यता है कि इस प्रतिमाकी भक्ति करनेसे संभी मनोकामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं। इस प्रतिमाके चमत्कारों और अतिशयोंके सम्बन्धमें जनतामें नाना प्रकारकी किंवदन्तियाँ प्रचलित हैं। उनमें सर्व प्रमुख यह है कि यहाँ रात्रिमें देव-गण आते हैं और इस मूर्तिके समक्ष भावविभोर होकर नृत्य और पूजन करते हैं। लोगोंमें यह भी धारणा व्याप्त है कि इस प्रतिमाका ही यह चमत्कार है कि अलकनन्दाकी बाढ़में भी वेदी और प्रतिमाओंकी कोई क्षति नहीं हुई। वस्तुतः एक अतिशय क्षेत्रके रूपमें इस मन्दिर और मूर्तिकी मान्यता शताब्दियोंसे चली आ रही है। भगवान् पार्श्वनाथकी इस प्रतिमाका सबसे बड़ा चमत्कार तो यह है कि जो इसके दर्शनोंको जाता है, उसके मनमें शुभ भावनाएँ और भगवान्की भक्तिका ऐसा उद्रेक होता है कि संसारकी तमाम वासनाओंको वह भूल जाता है। मन्दिरके प्रांगणमें क्षेत्रपाल भैरोंका भी मन्दिर है। सन् १९७० से ही मन्दिरमें जर्णोद्धारका कार्य चल रहा है।
SR No.090096
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1974
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size16 MB
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