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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ और फिर दक्षिणकी ओर बहती है। यहाँ एक चबूतरेपर जो गंगाकूट कहलाता है-जटाजूट मुकुटसे सुशोभित ऋषभदेव आदिजिनकी प्रतिमा है। इसके ऊपर गंगाकी धारा पड़ती है; मानो गंगा उनका अभिषेक ही कर रही हो।
'तिलोयपण्णत्ति' ग्रन्थमें उक्त मान्यताका समर्थन करनेवाली निम्नलिखित गाथा ध्यान देने योग्य है
आदि जिणप्पडिमाओ ता ओ जडमउड सेहरिल्लाओ।
पडिमोबरिम्म गंगा अभिसित्तुमणा व सा पढदि ।।४।२३०।इससे मिलती-जुलती एक गाथा त्रिलोकसारमें भी उपलब्ध होती है, जो इस प्रकार है
सिरिगिह सीसट्टियं बुजकाणिय सिंहासणं जडामंडलं।
जिणमभिसित्तुमणा वा ओदिण्णा मत्थए गंगा ॥५९०।। इन अवतरणोंमें हिमालयके इस हिमाच्छादित प्रदेशमें आदि जिनकी प्रतिमाका उल्लेख निश्चय ही इस बातको सूचित करता है कि भगवान् ऋषभदेवने इस पर्वतपर तपस्या की . थी। लोकमानसमें यह धारणा व्याप्त है कि गंगा ब्रह्माके कमण्डलुसे निकलकर शिवजीकी जटाओंमें समा गयी। फिर वहाँसे निकलकर विष्णुके चरणोंमें पहुँची और वहाँसे भगीरथ तपस्या करके गंगाको धरातलपर लाया । यदि इस सारे कथन को आलंकारिक मानकर हम इसका तथ्य जाननेका प्रयत्न करें तो वास्तविकता उजागर हो सकती है। गंगा पद्म सरोवरसे निकलकर चली। उसकी धारा ऊपरसे गंगाकूटपर स्थित ऋषभदेवकी एक पाषाण प्रतिमाके सिरपर गिरी। प्रतिमाके जटाजूट है। वहाँसे आगे गंगा बर्फके नीचे बहती रही, एक प्रकारसे वह अदृश्य हो गयी। फिर वह नारायण पर्वतके चरणोंमें जा निकली। किन्तु उससे आगे पुनः बर्फके कारण अदृश्य ही रही। फिर वह गोमुखाकार शिलाखण्डसे निकलकर गंगोत्री आयी, जहाँ भगीरथ मुनिने तपस्या की थी और जहाँपर अब तक एक शिला मौजूद है जिसे भगीरथशिला कहते हैं। गंगा-तटपर बैठकर उन्होंने जो दुद्धर तप किया, उसके कारण गंगाकी एक धाराका नाम ही भागीरथी पड़ गया।
मुनिराज भगीरथकी तपस्या असाधारण, अतिशयसम्पन्न और महान् थी। उनके चरणोदकके गंगामें मिलनेपर गंगा नदी भी इस लोकमें तीर्थ बन गयी। इस रहस्यका उद्घाटन करते हुए आचार्य गुणभद्रने कहा है
"निर्वाणगमनं श्रुत्वा तेषां निविण्ण मानसः । बरदत्ताय दत्वात्मराज्य लक्ष्मी भगीरथः ।। कैलासपर्वते दीक्षां शिवगुप्त महामुनेः । आदाय प्रतिमायोग धार्यभूत्स्वधूंनी तटे ॥ सुरेन्द्रेणास्य दुग्धाब्धिपयोभिरिभिषेचनात् । क्रमयोस्तत्प्रवाहस्य गंगायाः संगमे सति ।। तदा प्रभृति तीर्थत्वं गंगाप्यस्मिन्नुपागता। कृत्वोत्कृष्टं तपो गंगातटेऽसौ निर्वतिं गतः ॥
-उत्तरपुराण ४८।१३८-१४१ अर्थात् 'सगर चक्रवर्तीके पुत्र मोक्ष चले गये' यह सुनकर भगीरथका मन निर्वेदसे भर गया। अतः उसने वरदत्तको राज्यलक्ष्मी सौंपकर कैलास पर्वतपर शिवगुप्त नामक महामुनिसे दीक्षा ले ली तथा गंगा नदीके तटपर प्रतिमायोग धारण कर लिया। इन्द्रने क्षीरसागरके जलसे महामुनि भगीरथके चरणोंका अभिषेक किया जिसका प्रवाह गंगामें जाकर मिल गया। उसी समयसे गंगा