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________________ उत्तरप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ था। उन्होंने कैलाश पर्वतपर जो ७२ स्वर्ण मन्दिर निर्मित कराये थे, बदरी विशालका मन्दिर उनमें से एक था । बदरी नामक छोटी झाड़ियाँ ही यहाँ मिलती हैं। यहाँ प्राचीन कालमें मुनिजन तपस्या किया करते थे। इस कारण यहाँ मुनियोंका आश्रम भी रहा होगा। अतः इसे बदरिकाश्रम कहने लगे और यहाँके मूलनायक भगवान्को बदरीनाथ । आज भी यहाँ मन्दिर और ऋषभदेवकी मूर्ति विद्यमान है। इन सब कारणोंसे स्पष्टतः यह जैनतीर्थ है। सम्राट भरतने ये मन्दिर एक ही स्थानपर नहीं बनवाये थे, अपितु वे उस विस्तीर्ण पर्वत प्रदेशके उन स्थानोंपर बनवाये गये, जहाँ मुनियोंने तपस्या की अथवा जहाँसे उन्हें मुक्ति-लाभ हुआ। बंदरीनाथ प्रतिमाका इतिहास. भगवान् बदरीनाथ और बदरीनाथ मन्दिरका बड़ा रोचक इतिहास है। मूलतः यह जैन मन्दिर था। ऐसी किंवदन्ती' प्रचलित है कि भगवान् बदरीनाथकी यह प्रतिमा इस मन्दिरकी नहीं है, बल्कि कैलाशके मार्ग में पड़नेवाले शिवचुलम्के निकटस्थ आदिबदरीकी है। तिब्बती आदिबदरीको थुलिंगमठ कहते हैं। वहाँसे यह प्रतिमा लाकर बदरीनाथमें विराजमान की गयी। इसके सम्बन्धमें यह मान्यता भी प्रचलित है कि एक बार इस प्रतिमाको नारद कुण्डमें से निकाला गया था। जब बौद्धोंका प्राबल्य हुआ, तब इस मन्दिरपर उनका अधिकार हो गया। उन्होंने इस मूर्तिको बुद्ध-मूर्ति मानकर पूजना आरम्भ कर दिया। जब आद्य शंकराचार्य बौद्धोंको पराजित करते हुए यहाँ आये, तब इधरके बौद्ध तिब्बतकी ओर भाग गये। भागते समय वे इस मूर्तिको अलकनन्दा नदीमें फेंक गये। तब शंकराचार्यने अलकनन्दामें-से मूर्तिको निकलवाकर पुनः यहाँ प्रतिष्ठित कराया। फिर एक बार इस मन्दिरके पुजारीने ही इस मूर्तिको तप्तकुण्डमें फेंक दिया और यहाँसे चला गया क्योंकि मन्दिरमें जो चढ़ावा आता था, वह उसके जीवन-निर्वाहके लिए पर्याप्त नहीं होता था। तब रामानुज सम्प्रदायके किसी आचार्यने उस कुण्डमें-से मूर्तिको निकलवाकर पुनः प्रतिष्ठित किया। तबसे इस मन्दिर और मूर्तिपर हिन्दुओंका ही अधिकार चला आ रहा है। . इसमें कोई सन्देह नहीं कि बदरीनाथकी यह मति दिगम्बर जैन तीर्थंकर ऋषभदेवकी मूर्ति है। किन्तु ऐसा लगता है कि यह मन्दिर और यह मूर्ति किन्हीं ऐतिहासिक कारणोंसे इतनी महत्त्वपूर्ण रही है, कि इसके अधिकारके लिए जैनों, हिन्दुओं और बौद्धोंमें इतना संघर्ष हुआ और भारतकी चारों दिशाओंमें अपना पीठ स्थापित करते हुए शंकराचार्यने उत्तर दिशाके लिए इस मन्दिरको चुना। इसका कारण एक ही रहा है। हिमालयका यह सम्पूर्ण प्रदेश, जिसमें उपर्युक्त आठ पर्वत हैं, मुनिजनोंकी तपोभूमि और निर्वाणभूमि रहा है। भगवान् ऋषभदेव, उनके भरत आदि पुत्र, भगीरथ, व्याली, महाव्याली, नागकुमार आदि असंख्य मुनियोंका निर्वाण महोत्सव यहीं मनाया गया । अतः यह सारा प्रदेश ही सिद्धक्षेत्र है। गंगावतरण इस प्रसंगमें गंगावतरणकी मान्यतापर एक दृष्टि डाल लेना भी उपयोगी रहेगा। जिसे आजकल गंगोत्री कहा जाता है, उससे १८ मील आगे जानेपर गोमुख नामक स्थान हैं, जहाँसे गंगा निकलती है, ऐसा कहा जाता है। किन्तु वस्तुतः गंगा इससे भी ऊपरसे निकलती है। जैन शास्त्रोके अनुसार गंगा नदी हिमवान् पर्वतके पद्म सरोवरसे निकलकर पहले पूर्वकी ओर १. 'कल्याण' का तीर्थीक वर्ष ३१ अंक १ पृष्ठ ४० । २. " , " पृष्ठ ५८ ।
SR No.090096
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1974
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size16 MB
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