SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ अष्टापद और कैलाशका पृथक् सिद्धक्षेत्रके रूपमें उल्लेख करनेकी क्या संगति हो सकती है ? किन्तु गहराईसे विचार करनेपर हम इस निष्कर्षपर पहुँचते हैं कि अष्टापद और कैलाश हिमवान् या हिमालयके नामान्तर मात्र हैं। धवलागिरि शब्दसे इस बातका समर्थन हो जाता है। हिमालय हिमके कारण धवल है, इसलिये वह धवलागिरि भी कहलाता है। अतः धवलागिरिके समान हिमालयको भी अष्टापद और कैलाशका पर्यायवाची समझ लेना चाहिए। __इस मान्यताको स्वीकार कर लेनेपर यह निष्कर्ष निकलता है कि कैलाश या अष्टापद कहनेपर हिमालयमें भागीरथी, अलकनन्दा और गंगाके तटवर्ती बदरीनाथ आदिसे लेकर कैलाश नामक पर्वत तकका समस्त पर्वत प्रदेश आ जाता है। इसमें आजकलके ऋषिकेश, जोशीमठ, बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, जमनोत्री और मुख्य कैलाश सम्मिलित हैं। यह पर्वत प्रदेश अष्टापद भी कहलाता था क्योंकि इस प्रदेशमें पर्वतोंकी जो शृंखला फैली हुई है, उसके बड़े-बड़े और मुख्य आठ पद हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं-कैलाश, गौरीशंकर, द्रोणगिरि, नन्दा, नर, नारायण, बदरीनाथ और त्रिशुली। जैन पुराणोंसे ज्ञात होता है कि जब ऋषभदेव राज्य भार संभालने योग्य हुए, तो महाराज नाभिराजने उनका राज्याभिषेक कर दिया। ( आदिपुराण १६।२२४ )। जब ऋषभदेव नीलांजना अप्सराकी आकस्मिक मृत्युके कारण संसार, शरीर और भोगोंसे विरक्त हो गये और दीक्षा ली, उस समय भी महाराजा नाभिराय और रानी मरुदेवी अन्य लोगोंके साथ तप कल्याणकका उत्सव देखनेके लिए पालकीके पीछे चल रहे थे। ( आदिपुराण १७१७८ )। वनमें पहुँचनेपर ऋषभदेवने माता-पिता और बन्धु-जनोंसे आज्ञा लेकर श्रमण-दीक्षा ले ली (पद्मपुराण ३।२८२ )। इन अवतरणोंसे यह तो स्पष्ट है कि तीर्थंकर ऋषभदेवके दीक्षा महोत्सवके समय उनके माता-पिता विद्यमान थे। किन्तु इसके बाद वे दोनों कितने दिन जीवित रहे अथवा उन्होंने अपना शेष जीवन किस प्रकार और कहाँ व्यतीत किया, इसके सम्बन्धमें जैन साहित्यमें अभी तक कोई स्पष्ट उल्लेख हमारे देखनेमें नहीं आया। किन्तु इस विषयमें हिन्दू पुराण 'श्रीमद्भागवत में महर्षि शुकदेवने जो विवरण प्रस्तुत किया है, वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। महर्षि लिखते हैं "विदितानुरागमापौर प्रकृति जनपदो राजा नाभिरात्मजं समयसेतु रक्षायामभिषिच्य सह मरुदेव्या विशालायां प्रसन्न निपूणेन तपसा समाधियोगेन........महिमानमवाप।" .. -श्रीमद्भागवत ५।४।५ इसका आशय यह है कि जनता भगवान् ऋषभदेवको अत्यन्त प्रेम करती थी और उनमें श्रद्धा रखती थी। यह देखकर राजा नाभिराय धर्ममर्यादाकी रक्षा करनेके लिए अपने पुत्र ऋषभदेवका राज्याभिषेक करके विशाला ( बदरिकाश्रम ) में मरुदेवी सहित प्रसन्न मनसे घोर तप करते हुए यथाकाल जीवन्मुक्तिको प्राप्त हुए। इस उल्लेखसे स्पष्ट है कि बदरिकाश्रम (जिसे बदरी विशाल या विशाला भी कहते हैं ) में नाभिराज जीवन्मुक्त हुए। इस कारणसे यह स्थान तीर्थधाम बना। जहाँ माता मरुदेवीने तपस्या की थी, वहाँ लोगोंने मन्दिर बनाकर उनके प्रति अपनी भक्ति प्रगट की। वह मन्दिर माणागाँवके निकट है। यह भारतीय सीमापर अन्तिम भारतीय गाँव है। अलकनन्दाके उस पार माणागाँव है और इस पार माताका मन्दिर है। सम्भवतः जिस स्थानपर बैठकर नाभिराजने जीवन्मुक्ति प्राप्त की थी, उस स्थानपर उनके चरण स्थापित कर दिये गये। ये चरण बदरीनाथ मन्दिरके पीछे पर्वतपर बने हुए हैं। उनके निकट ही भगवान् ऋषभदेवके एक विशाल मन्दिरका भी निर्माण किया गया। यह माननेके पर्याप्त कारण हैं कि यहाँपर प्रथम चक्रवर्ती भरतने यह मन्दिर बनवाया
SR No.090096
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1974
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy