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________________ ८८ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ तब वे विचार करने लगे कारितं भरतेनेदं जिनायतनमुत्तमम् । सर्वरत्नमयं तुङ्गं बहुरूप विराजितम् ।। प्रत्यहं भक्तिसंयुक्तैः कृतपूजं सुरासुरैः । मा विनाशि चलत्यस्मिन् पर्वते भिन्न पर्वणि ॥ -पद्मपुराण ९।१४७-१४८ अर्थात भरत चक्रवर्तीने ये नाना प्रकारके सर्व रत्नमयी ऊँचे-ऊँचे जिनमन्दिर बनवाये हैं। भक्तिसे भरे हुए सुर और असुर प्रतिदिन इनकी पूजा करते हैं । अतः इस पर्वतके विचलित हो जानेपर कहीं ये जिनमन्दिर नष्ट न हो जावें । ऐसा विचार कर मुनिराजने पर्वतको अपने पैरके अँगूठेसे दबा दिया। दशानन दब गया और बुरी तरह रोने लगा। तभीसे ही उसका नाम रावण पड़ गया। तब दयावश उन्होंने अँगूठा ढीला कर दिया और रावण पर्वतके नीचेसे निकलकर निरभिमान हो मुनिराजकी स्तुति करने लगा। महामनि वाली घोर तपस्या करके कैलाशसे मुक्त हुए। इस घटनासे यह निष्कर्ष निकलता है कि उस काल तक भरत द्वारा निर्मित जिन-मन्दिर विद्यमान थे। किन्तु पंचम कालमें ये नष्ट हो गये, इस प्रकारकी निश्चित सचना भविष्यवाणीके रूपमें प्राप्त होती है कैलास पर्वते सन्ति भवनानि जिनेशिनां । चतुर्विशति संख्यानि कृतानि मणिकाञ्चनैः ।। सुरासुर-नराधीशैर्वन्दितानि दिवानिशम । यास्यन्ति दुःषमे काले नाशं तस्करादिभिः ।। -हरिषेण बृहत्कथा, कोष ११९ अर्थात् कैलाश पर्वतपर मणिरत्नोंके बने हुए तीर्थंकरोंके चौबीस भवन हैं । सुर, असुर और राजा लोग उनकी दिनरात वन्दना करते रहते हैं। दुःषम ( पंचम ) कालमें तस्कर आदिके द्वारा वे नष्ट हो जायेंगे। जैन पुराण-ग्रन्थोंसे ज्ञात होता है कि चतुर्थ कालमें कैलाश यात्राका बहुत रिवाज था। विद्याधर विमानों द्वारा कैलाशकी यात्राको जाते रहते थे। अंजना और पवनंजयका विवाह सम्बन्ध कैलाशकी यात्राके समय ही हुआ था। पवनंजयके पिता राजा प्रह्लाद और अंजनाके पिता राजा महेन्द्र दोनों ही फाल्गुनी अष्टाह्निकामें कैलाशकी वन्दनाके लिए गये थे। वहींपर दोनों मित्रोंने अपने पुत्र और पुत्रीका सम्बन्ध कर विवाह कर दिया। विद्याधरोंकी कैलाश-यात्राके ऐसे अनेक प्रसंगोंका उल्लेख जैन पुराण साहित्यमें उपलब्ध होता है : कैलाशकी स्थिति कैलाशकी आकृति ऐसे लिंगाकारकी है जो षोडश दलवाले कमलके मध्य खड़ा हो। उन सोलह दलवाले शिखरोंमें सामनेके दो शृंग झककर लम्बे हो गये हैं। इसी भागसे कैलाशका जल गौरी कुण्डमें गिरता है। ___ कैलाश इन पर्वतोंमें सबसे ऊँचा है। उसका रंग कसौटीके ठोस पत्थर जैसा है। किन्तु बर्फसे ढंके रहनेके कारण वह रजत वर्ण प्रतीत होता है। दूसरे शृंग कच्चे लाल मटमैले पत्थरके
SR No.090096
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1974
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size16 MB
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