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________________ उत्तरप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ -भगवान् ऋषभदेवके मोक्ष जानेपर उनकी चिता देवोंने पूर्व दिशामें बनायी। भगवान्के साथ जो मुनि मोक्ष गये थे, उनमें जो इक्ष्वाकुवंशी थे, उनकी चिता दक्षिण दिशामें तथा शेष मुनियोंकी चिता पश्चिम दिशामें बनायी गयी। बादमें तीनों दिशाओं में चिताओंके स्थानपर देवोंने तीन स्तूपोंकी रचना की। अनेक जैन ग्रन्थोंमें उल्लेख मिलता है कि कैलासपर भरत चक्रवर्ती तथा अन्य अनेक राजाओंने रत्न प्रतिमाएं स्थापित करायी थीं। यथा कैलास शिखरे रम्ये यथा भरतचक्रिणा । स्थापिताः प्रतिमा वा जिनायतनपंक्तिषु ॥ तथा सूर्यप्रभेणापि"......... -हरिषेण कथाकोष, ५६।५ -जिस प्रकार मनोहर कैलाश शिखरपर भरतचक्रवर्तीने जिनालयोंकी पंक्तियोंमें नाना वर्णवाली प्रतिमाएं स्थापित की थीं, उसी प्रकार सूर्यप्रभ नरेशने मलयगिरिपर स्थापित की। भरतचक्रवर्तीने चौबीस तीर्थंकरोंकी जो रत्न-प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित की थीं, उनका अस्तित्व कब तक रहा. यह तो असन्दिग्ध रूपसे नहीं कहा जा सकता, किन्तु इन मन्दिरों और मतियोंका अस्तित्व चक्रवर्तीके पश्चात् सहस्राब्दियों तक रहा, इस प्रकारके स्फुट उल्लेख जैन वाङ्मयमें हमें यत्र-तत्र मिलते हैं। द्वितीय चक्रवर्ती सगरके साठ हजार पुत्रोंने जब अपने पितासे कुछ कार्य करनेकी आज्ञा माँगी तब विचार कर चक्रवर्ती बोले राज्ञाप्याज्ञापिता यूयं कैलासे भरतेशिना। गृहाः कृता महारत्नैश्चतुविशतिरर्हताम् ।। तेषां गङ्गां प्रकुर्वीध्वं परिखां परितो गिरिम् । इति तेऽपि तथाकुर्वन् दण्डरत्नेन सत्त्वरम् ।। ___-उत्तरपुराण, ४८।१०७-१०८ अर्थात् राजा सगरने भी आज्ञा दी कि भरत चक्रवर्तीने कैलाश पर्वतपर महारत्नोंसे अरहन्तोंके चौबीस मन्दिर बनवाये थे। तुम लोग उस पर्वतके चारों ओर गंगा नदीको उन मन्दिरोंकी परिखा बना दो। उन राजपुत्रोंने भी पिताकी आज्ञानुसार दण्डरत्नसे वह काम शीघ्र ही कर दिया। ___ इस घटनाके पश्चात् भरत चक्रवर्ती द्वारा कैलास पर्वतपर बनाये हुए जिन मन्दिरोंका उल्लेख वाली मुनिके प्रसंगमें आता है। एक बार लंकापति दशानन नित्यालोक नगरके नरेश नित्यालोककी पुत्री रत्नावलीसे विवाह करके आकाश मार्गसे जा रहा था। किन्तु कैलाश पर्वतके ऊपरसे उड़ते समय उसका पुष्पक विमान सहसा रुक गया। दशाननने विमान रुकनेका कारण जानना चाहा तो उसके अमात्य मारीचने कहा-“देव ! कैलाश पर्वतपर एक मुनिराज प्रतिमायोगसे विराजमान हैं। वे घोर तपस्वी प्रतीत होते हैं। इसीलिए यह विमान उनको अतिक्रमण नहीं कर सका है। दशाननने उस पर्वतपर उतर मुनिराजके दर्शन किये। किन्तु वह देखते ही पहचान गया कि यह बाली है। उनके साथ अपने पूर्व संघर्षका स्मरण करके वह बड़े क्रोधमें भरकर बोला-अरे दुर्बुद्धि ! तू बड़ा तप कर रहा है कि अभिमानसे मेरा विमान रोक लिया, मैं तेरे इस अहंकारको अभी नष्ट किये देता हूँ। तू जिस कैलाश पर्वतपर बैठा है, उसे उखाड़ कर तेरे ही साथ अभी समुद्रमें फेंकता हूँ।" यह कहकर दशाननने ज्योंही अपनी भुजाओंसे विद्याबलको सहायतासे कैलाशको उठाना प्रारम्भ किया, मुनिराज बालीने अवधिज्ञानसे दशाननके इस दुष्कृत्यको जान लिया।
SR No.090096
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1974
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size16 MB
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