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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थं
राज भरत आयु अन्तमें वृषभसेन आदि गणधरोंके साथ कैलाश पर्वतपर आरूढ़ हो ये और शेष कर्मों का क्षय करके वहींसे मोक्ष प्राप्त किया ।
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श्री बाहुबली स्वामीको कैलाश पर्वत से निर्वाण प्राप्त हुआ । इस सम्बन्धमें आचार्यं जिनसेन आदिपुराणमें उल्लेख करते हैं
इत्थं स विश्वविद्विश्वं प्रीणयन् स्ववचोऽमृतैः । कैलासमचलं प्रापत् पूतं संनिधिना गुरोः || ३६ २०३
_अर्थात् समस्त विश्वके पदार्थोंको जाननेवाले बाहुबली अपने वचनरूपी अमृतके द्वारा समस्त संसारको सन्तुष्ट करते हुए पूज्य पिता भगवान् ऋषभदेवके सामीप्यसे पवित्र हुए कैलाश पर्वत पर जा पहुँचे ।
-अयोध्या नगरीके राजा त्रिदशंजयकी रानी इन्दुरेखा थी । उनके जितशत्रु नामक पुत्र था । जितशत्रु के साथ पोदनपुर नरेश व्यानन्दकी पुत्री विजयाका विवाह हुआ था । द्वितीय तीर्थंकर अजितनाथ इन्हींके कुलदीपक पुत्र थे । भगवान् पितामह त्रिदशंजयने मुनि दीक्षा ले ली और कैलाश पर्वतसे मुक्त हु 1
—सगर चक्रवर्तीके उत्तराधिकारी भगीरथ नरेशने कैलाशमें जाकर मुनि दीक्षा ली और गंगा-तटपर तप करके मुक्त हुए ।
- प्राकृत निर्वाण भक्तिमें अष्टापदसे निर्वाण प्राप्त करनेवाले कुछ महापुरुषोंका नाम-स्मरण करते हुए उन्हें नमस्कार किया गया है। उसमें आचार्य कहते हैं
कुमार मुणिन्दो बाल महाबाल चैव अच्छेया ।
अट्ठावयगिरि - सिहरे निव्वाण गया णमो तेसिं ॥ १५ ॥
अर्थात् अष्टापद शिखरसे व्याल, महाव्याल, अच्छेद्य, अभेद्य और नागकुमार मुनि मुक्त हुए । - हरिषेण चक्रवर्तीका पुत्र हरिवाहन था । उसने कैलास पर्वतपर दीक्षा ली और वहीं से निर्वाण प्राप्त किया ।
हरिवाहन दुद्धर बहु धरहु । मुनि हरिषेण अंगु तउ चरिउ । घातिचक्क कम्म खऊ कियऊ । केवल णाण उदय तब हयऊ ॥ निरु सचराचरु पेखिउ लोउ । पुणि तिणिजाय दियउ निरुजोउ || अन्त यालि सन्यास करेय । अट्ठसिद्धि गुणि हियऊ धरेउ || सुद्ध समाधि चयेविय पाण। निरुवम सुह पत्तइ निव्वाण |
- कवि शंकर कृत हरिषेण चरित, ७०७-७०९ ( एक जीर्ण गुटकेपर से - रचना काल १५२६ )
विविध तीर्थंकल्पमें आचार्य जिनप्रभ सूरिने 'अष्टापद कल्प' नामक कल्पकी रचना की है। उसमें लिखा है
— इन्द्रने अष्टापदपर रत्नत्रयके प्रतीक तीन स्तूप बनाये |
- भरत चक्रवर्तीने यहाँ चार सिंहनिषद्या बनवायीं, जिनमें सिद्ध प्रतिमाएँ विराजमान करायीं । इनके अतिरिक्त उन्होंने चौबीस तीर्थंकरों और अपने भाइयोंकी प्रतिमाएँ भी विराजमान करायीं । उन्होंने यहाँ चौबीस तीर्थंकरों और निन्यानबे भाइयोंके स्तूप भी बनवाये थे ।
१. उत्तरपुराण, ४८।१४१