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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ
उनके मन्त्री थे। ये लम्बकंचक वंशके थे। इनके पिता सोमदेव कर्णदेव राजाके मन्त्री थे। कविने वासाधरकी प्रेरणासे उक्त काव्य-ग्रन्थकी रचना की थी। इनके पूर्वज वोकर्ण, सोमदेव भी चन्दवारके नरेशोंके मन्त्री थे। कविवर धनपालने 'बाहुबलि देवचरिउ' में यहाँ अनेक जैनमन्दिर होनेकी सूचना देते हुए लिखा है
उत्तुंग धवलु सिरि-कय-कलसु तहि जिणहरु णं वासहर जसु । मइ गंपि पलोयउ जिण भवणु बहु समणालउणं सम-सरणु ।।
सिरि अरह बिंब पूण बंदियउ। कविने नगरका यह वर्णन स्वयं अपनी आँखोंसे देखकर किया है। इस सूचनाके अनुसार एक विशेष बातपर भी प्रकाश पड़ता है कि उस नगरमें भगवान् अरहनाथकी एक प्रतिमा विशेष उल्लेखनीय थी। सम्भवतः यह प्रतिमा अत्यन्त सातिशय थी और उस युग में उस प्रतिमा की ख्याति अत्यधिक थी।
यहाँके कुछ राजाओंके नाम इस प्रकार मिलते हैं जो चौहानवंशी थे-सम्भरीराय, सारंग नरेन्द्र, अभयचन्द्र, जयचन्द, रामचन्द्र। इनके लम्बकंचुक ( लबेंचू ) मन्त्रियोंके नाम इस प्रकार थे-साहू हल्लण, अमृतपाल, साहू सेढू, कृष्णादित्य । ये सब जैन थे। अमृतपालने एक सुन्दर जिनमन्दिर बनवाया था। कृष्णादित्यने रायवद्दियके जैनमन्दिरका जीर्णोद्धार कराया था।
वि. सं. १२३० में कविवर श्रीधर ने 'भविसयत्त कहा' की रचना इसी नगरमें की थी। उन्होंने इस ग्रन्थकी रचना चन्द्रवाड़ नगर निवासी माथुरवंशी साहू नारायणकी पत्नी रुप्पिणीदेवीके अनुरोधसे की थी।
चन्दवारके निकट ही रपरी नामक एक स्थान है। यहाँ भी जैन राजा राज्य करते थे। जायसवंशी ( जैसवाल ) कवि लक्ष्मणने रायवद्दिय ( रपरी) का वर्णन किया है। यह कवि त्रिभुवनगिरिका रहनेवाला था। यह स्थान बयानासे १४ मील है। सूरसेनवंशी राजा तहनपालने सन् १०४३ में विजयगढ़ ( बयाना ) या श्रीपथ बसाया था और उसके पुत्र त्रिभुवनपालने त्रिभुवनगिरि बसाया। इसीका नाम बिगड़कर तहनगढ़ बन गया। जब सन् ११९६ में मुहम्मद गोरीने इसपर आक्रमण करके अधिकार कर लिया और अत्याचार किये तो कवि लक्ष्मण वहाँसे भागकर विलराम (एटा जिला ) में पहुँचे। वहाँ कुछ समय ठहरकर वे रायवद्दिय ( रपरी) आ गये। उस समय यहाँका राजा आहवमल्ल था, जो चन्द्रवाड़ नगरके चौहान वंशसे सम्बन्धित था। इसीने सर्वप्रथम रपरीको अपनी राजधानी बनाया था। इसी राजाके मन्त्री कृष्णादित्यकी प्रेरणासे कविने वि. सं. १३१३ में 'अणुवय रयण पईव' ग्रन्थकी रचना की थी। जब मुहम्मद गोरीने यहाँ आक्रमण किया, उस समय यहाँका राजा रपरसेन था। वह गोरीके साथ युद्धमे करखा नामक स्थानपर मारा गया। यहाँ उस कालमें जैनोंकी आबादी बहुत थी।
ऐतिहासिक महत्त्व
इस नगरका अपना ऐतिहासिक महत्त्व भी रहा है और यहाँके मैदानों तथा खारोंमें कई बार इस देशकी भाग्य-लिपि लिखी गयी है। यहाँ कई बार तो ऐसे इतिहासप्रसिद्ध युद्ध हुए हैं, जो भारतपर शासन-सत्ता और आधिपत्यके लिए भी निर्णायक हुए।
इतिहास-ग्रन्थोंसे ज्ञात होता है कि चन्दवारमें एक दुर्भेद्य किला था। सन् ११९४ में