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________________ ७४ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ खड़े होकर मन्दिर बनवाया। यद्यपि अब यमुना वहाँसे कुछ दूर हट गयी है किन्तु वर्षा ऋतुमें अब भी मन्दिर यमुनामें डूब जाता है। महाराज भदावरने जैनमन्दिरोंकी रक्षार्थ कुछ जमीन भी दी थी जो जतीके चकके नामसे प्रसिद्ध रही। जब उत्तरप्रदेशमें जमींदारी प्रथा समाप्त हुई, तब यह जमीन अपने अधिकारसे निकल गयी। भगवान् अजितनाथकी प्रतिमा पालिशदार है। उसका बायाँ हाथ जुड़ा हुआ है, ऐसा लगता है। मूति अत्यन्त प्रभावक और सातिशय है। इस वेदीपर बाईस धातु प्रतिमाएँ विराजमान हैं । इस मुख्य वेदीके बायीं ओरके गर्भगहमें एक वेदीके मध्यमें एक शिलाफलकपर भगवान् शान्तिनाथकी चार फूट ऊँची कायोत्सर्गासन प्रतिमा है। इसके परिकरमें बायीं ओर एक खड्गासन और दायीं ओर एक पद्मासन तीर्थंकर प्रतिमा है। चरणोंके नीचे दो भक्त श्रावक बैठे हुए हैं। उनके बीचमें दो स्त्रियाँ मुकुलित करपल्लव मुद्रामें आसीन हैं। दो चमरवाहक इन्द्र इधर-उधर खड़े हैं। ऊपर पाषाणकी छत्रत्रयी है। ऊपर वीणावादिनी और मृदंगवादक बैठे हैं। पीठासनपर हरिण अंकित है। इस मूर्तिका प्रतिष्ठा-काल ( मूर्ति लेखके अनुसार ) वि. संवत् ११५० वैशाख बदी २ है। इस मूतिके अतिरिक्त इस वेदीमें वि. सं. १६८८ की एक कत्थई रंगकी और वि.सं. १८३८ की एक श्वेत पाषाणकी प्रतिमाएँ हैं। बीस अन्य छोटी-छोटी पाषाण-प्रतिमाएँ और चरण हैं, जो कई शताब्दी पूर्वको हैं। मुख्य वेदीके दायीं और बायीं ओरकी वेदियोंपर तीन-तीन पाषाण प्रतिमाएँ हैं । प्रतिमाओंपर लेख या लांछन कुछ नहीं है। किन्तु ये प्रतिमाएँ काफी प्राचीन–अनुमानतः ११-१२वीं शताब्दीकी प्रतीत होती हैं। दायीं ओरके कमरेकी वेदीमें काले पाषाणकी पौने तीन फुटकी भगवान् नेमिनाथकी पद्मासन प्रतिमा है तथा लगभग १५० धातु प्रतिमाएँ हैं। स्टोरमें एक प्राचीन प्रतिमा पेटीमें रखी हुई है। यह बलुआ पाषाणकी भूरे रंगकी सवा दो फुट अवगाहनावाली पद्मासन प्रतिमा है। यह एक पाषाण फलकमें उत्कीर्ण है। प्रतिमाके नीचे दो सिंह बने हुए हैं। एक ओर यक्ष-यक्षिणी है। मध्यमें शंखका चिह्न है और दायीं ओर हाथ जोड़े हुए सेविका खड़ी है। चरणोंके दोनों ओर चवरवाहक हैं। उनके ऊपर दो अश्व बने हुए हैं और दो चतुर्भजी यक्ष उत्कीर्ण हैं। ऊपर दो विद्याधर पुष्पवृष्टि करते हुए दीखते हैं। मूतिके चारों ओरका अलंकरण आकर्षक है। यह मूर्ति लगभग ११-१२वीं शताब्दीकी लगती है। यह मूर्ति बीचमें जुड़ी हुई है। वटेश्वरमें एक जैन धर्मशाला थी। एक और धर्मशाला दानमें प्राप्त हुई है। यह धर्मशाला पुरानी है। इसके जीर्णोद्धारकी आवश्यकता है। यह जिस घाटपर अवस्थित है, वह घाट भी टूटा हुआ है। इसकी मरम्मतकी अविलम्ब आवश्यकता है। पुरातत्त्व जैन मान्यतानुसार शौरीपुरका इतिहास महाभारत कालसे भी कुछ पूर्वसे प्रारम्भ होता है। इस जैन मान्यताका समर्थन भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभागकी ओरसे मार्च सन् १९७२ में किये गये सर्वेक्षणसे भी होता है। केन्द्रीय कार्यालयके निर्देशसे आगरा स्थित पूरातत्त्व सर्वेक्षण विभागकी ओरसे सहायक अधिकारी श्री जगदीशसहाय निगमने वटेश्वर, शौरीपूर आदि स्थानों
SR No.090096
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1974
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size16 MB
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