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________________ उत्तरप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ ७३ का लेख अंकित है । लेखके अनुसार सं.१८२८ कार्तिक सुदी ११ शनिवारको भट्टारक जिनेन्द्र भूषणके उपदेशसे ये चरण स्थापित किये गये हैं । यह टोंक दोमंजिली है । नीचेका भाग जमीनके भीतर है। ___इस पंचमठीके पीछे दक्षिण की ओर अन्तकृत् केवली धन्यकी बहुत प्राचीन टोंक है । वह बिलकुल जीर्ण है । इसमें अब कोई चरण या मूर्ति नहीं है। प्राचीन मन्दिरके उत्तर-पूर्व की ओर एक प्राचीन टोंक थी। उसमें चरण विराजमान थे। किसी समय भट्टारकोंने धर्म-वात्सल्यके नाते श्वेताम्बरोंको इसके दर्शन-पूजनकी सुविधा दे दी थी। किन्तु कालान्तरमें श्वेताम्बरोंने इसपर अपना अधिकार कर लिया और चरण हटाकर मन्दिर बना लिया और प्रतिमा स्थापित कर दी। इसके दक्षिणमें भी एक प्राचीन मन्दिरका भग्न भाग था। केवल दालान बचा था। उसमें भगवान् नेमिनाथकी प्रतिमा विराजमान थी। इसपर श्वेताम्बरोंने अपना अधिकार कर लिया। यहाँपर १६ फुट चौड़ा एक प्राचीन कुआँ है। इसका जल बड़ा स्वादिष्ट और स्वास्थ्यवर्धक है। दिगम्बर समाजने यहाँ एक धर्मशाला और आदिमन्दिरके दक्षिणमें एक कुआँ और बनवा लिया है। मूलतः यह दिगम्बर तीर्थ है। जितने प्राचीन मन्दिर, मूर्तियाँ और चरण हैं, सभी दिगम्बर परम्पराके हैं। आसपासके जैन स्त्री-पुरुष यहाँ मुण्डन, कर्ण-वेधन आदि संस्कार कराने आते हैं। यह क्षेत्र मूलसंघाम्नायी भट्टारकोंका स्थान रहा है। भट्टारक जगतभूषण और विश्वभूषणकी परम्परामें अठारहवीं शताब्दीमें जिनेन्द्रभूषण भट्टारक हुए हैं। ये मन्त्रवेत्ता सिद्धपुरुष थे। इनके चमत्कारोंके सम्बन्धमें अनेक किवदन्तियाँ अब तक प्रचलित हैं। उन्होंने भिण्ड, ग्वालियर, आरा, पटना, सम्मेदशिखर, सोनागिर, मसार आदि कई स्थानोंपर विशाल मन्दिर तथा धर्मशालाएँ बनवायीं, जो अब तक विद्यमान हैं। वटेश्वरका दिगम्बर मन्दिर भी उन्हींके आग्रहसे बनवाया गया था। वटेश्वर वटेश्वरके दिगम्बर मन्दिरके सम्बन्धमें कहा जाता है कि जब शौरीपुर यमुना नदीके तटसे अधिक कटने लगा और बीहड़ हो गया, तब उक्त भट्टारकजीने वटेश्वरमें विशाल मन्दिर और धर्मशाला बनवायी। यह मन्दिर महाराज बदनसिंह द्वारा निर्मापित घाटके ऊपर वि. सं. १८३८ में तीन मंजिलका बनवाया गया था। उसकी दो मंजिलें जमीनके नीचे हैं । इस मन्दिरमें महोबासे लायी हई भगवान् अजितनाथकी पाँच फुट ऊँची कृष्ण पाषाणकी सातिशय पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। इसकी प्रतिष्ठा संवत् १२२४ वैशाख वदी ७ सोमवारको परिमाल राज्यमें आल्हा-ऊदलके पिता जल्हड़ने करायी थी। इस मन्दिरके सम्बन्धमें एक किंवदन्ती बहुप्रचलित है। एक बार भदावर नरेशने भट्टारक जिनेन्द्रभूषणजीसे तिथि पूछी तो भूलसे वे अमावस्याको पूर्णिमा कह गये। किन्तु जब उन्हें अपनी भूल प्रतीत हुई तो भूलको सत्य सिद्ध करनेके लिए मन्त्र-बलसे एक काँसेकी थाली आकाशमें चढ़ा दी जो बारह कोस तक चन्द्रमाकी तरह चमकती थी। इस बातका पता ब्राह्मणोंको लग गया और उन्होंने महाराजको यह बात बता दी। इससे वे अप्रसन्न नहीं हुए, बल्कि उलटे प्रसन्न ही हुए और उन्होंने भट्टारकजीसे सहर्ष कुछ माँगनेका आग्रह किया। तब भट्टारकजीने मन्दिर बनवानेकी आज्ञा माँगी। महाराजने स्वीकृति तो दे दी किन्तू ब्राह्मणों द्वारा उसमें बाधा डाल दी गयी। फलतः यह आज्ञा संशोधित रूपमें इस प्रकार आयी कि मन्दिर यमनाकी बीच धारामें बनाया जाये। भट्टारकजीने इस आज्ञाको स्वीकार कर लिया और यमुनाकी धारामें ही स्वयं १०
SR No.090096
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1974
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size16 MB
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