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________________ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ दायीं ओर दो वेदियाँ हैं । दोनों में ही दो-दो आधुनिक प्रतिमाएँ विराजमान हैं। बायीं ओरके गर्भालयमें एक वेदी है। इसमें श्वेत पाषाणकी ढाई फूट अवगाहनावाली पद्मासन प्रतिमा है। पाद-पीठपर गेंडेका चिह्न बना हुआ है। अतः यह भगवान् विमलनाथकी प्रतिमा है। इसके इधर-उधर पार्श्वनाथ और चन्द्रप्रभ भगवान् विराजमान हैं। प्रतिमा-लेखके अनुसार इसकी प्रतिष्ठा वि. सं. १३५७ ( ई. १३०० ) जेठ सुदी १४ को हुई थी। दायीं ओरके गर्भगृहमें एक वेदीमें श्वेत पाषाणकी ढाई फुट अवगाहनावाली पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। मूर्ति-लेखके अनुसार यह संवत् १३०८ ( सन् १२५१ ) में प्रतिष्ठित हुई थी। इस प्रतिमाके आगे चन्द्रप्रभ भगवान्की आधुनिक प्रतिमा रखी है। उक्त वेदीके दायीं ओर एक वेदीमें दो प्राचीन प्रतिमाएँ हैं । मध्यमें एक प्रतिमा कायोत्सर्गासनमें स्थित है। एक शिलाफलकमें बायीं ओरको चार प्रतिमाओंका अंकन किया गया है और दूसरे शिलाफलकके दायीं ओर भी ऐसा ही अंकन है। वस्तुतः ये दोनों ही शिलाफलक एक मूर्तिके दो भाग हैं जिनपर पंच वालयतिकी ये प्रतिमाएँ उकेरी गयी हैं। नीचे की ओर यक्षमूर्ति है। उसके बायें हाथमें कोई फल या बिजौरा है और दायें हाथमें शक्ति है। ये दोनों ही प्रतिमाएँ वाह ( जिला आगरा ) से आगे नदगवाँ गाँवके निकट हतकान्त ( हस्तिकान्तपूर ) के जैनमन्दिर से सन् १९३८ में ऊँटपर रखकर लायी गयी थी। हतकान्तमें बहत प्राचीन दोमंजिला दिगम्बर जैनमन्दिर हैं। यहाँ कभी जैनोंकी अच्छी बस्ती थी। व्यापारिक कारणोंसे यहाँके कुछ जैन कलकत्ता, इटावा, आगरा आदि शहरोंमें चले गये। जो वहीं जमीन-जायदादके मोहसे पड़े रहे, उन्हें डाकुओंके आतंकके कारण अपनी जन्म-भूमिका त्याग करना पड़ा, क्योंकि यह इलाका नितान्त दस्यु-प्रभावित है। ऐसी दशामें वहाँकी कुछ मूर्तियाँ इटावाकी जैन धर्मशालावाले मन्दिरमें ले जाकर विराजमान कर दी गयीं और उपर्युक्त दो मूर्तियाँ यहाँ लाकर स्थापित कर दी गयीं। हतकान्तके मन्दिरमें अभी कुछ मूर्तियाँ विद्यमान हैं। हतकान्त एक ऐतिहासिक नगर रहा है। यह धन-धान्यपूर्ण और श्रीसम्पन्न नगर था। ऐसे भी उल्लेख प्राप्त हुए हैं, जिनसे पता चलता है कि यहाँ ५१ प्रतिष्ठाएँ हुई थीं। सन् १३८९ में सुलतान फ़िरोजशाहने इस नगरपर आक्रमण करके इसे भारी क्षति पहुँचायी। यहाँके मन्दिर बरबाद कर दिये गये। पंचमठी-शंखध्वज मन्दिर के बायीं ओर एक मैदानमें, जिसके चारों ओर दीवालें हैं, प्राचीन टोंके और छतरियाँ बनी हुई हैं। यह स्थान पंचमठी कहलाता है। यहाँ तीन मूर्तियाँ मैदानमें रखी हुई हैं । ये मूर्तियाँ सन् १९४०-४१ में यहीं भूगर्भसे निकली थीं। ये तीनों ही मूर्तियाँ खण्डित कर दी गयी हैं। मूर्तियाँ बलुआई पाषाणकी भूरे रंगकी हैं। तीनोंका आकार लगभग साढ़े तीन फुट है । एक मूर्ति के सिंहासन पीठपर भगवान् महावीरका चिह्न सिंह है । दूसरी मूर्तिपर कमल या नीलकमलका चिह्न है, जिससे यह मूर्ति पद्मप्रभु या नमिनाथ तीर्थंकरकी जान पड़ती है। तीसरी मूर्ति महावीर स्वामीकी है जिसपर सिंहका लांछन अंकित है। प्रतिमाओंके ऊपर दोनों ओर चमरी वाहक, गज और मूर्तियाँ बनी हुई हैं। किसी मूर्तिपर कोई लेख नहीं है। किन्तु इन मूर्तियोंका आनुमानिक निर्माण-काल ११-१२वीं शताब्दी लगता है। यहाँ एक छतरीके नीचे यम मुनिके चरण अंकित हैं। उत्तर दिशाकी छतरीके नीचे धन्य मनिके चरण स्थापित हैं। दक्षिण दिशाकी टोंकमें भी किसी मुनिके चरण विराजमान हैं। दो प्राचीन टोंकें बनी हुई हैं जो खाली पड़ी हैं । बीचमें ऊँचे पायेकी एक टोंक बनी है। इसकी वेदीकी प्रतिमा चोरी चली गयी है। तबसे वेदी सूनी है। वेदीके आगे चरण बने हुए हैं, जहाँ वि. सं. १८२८
SR No.090096
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1974
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size16 MB
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