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________________ आराधनासमुच्चयम् ८७ संख्येयाक्षरजनितं पदविज्ञानं वदन्ति विश्वज्ञाः ।। प्राग्वत्तदुपरि वृद्धा बोधाः स्युः पदसमासाख्याः ।।६५ ।। संघासाविज्ञानान्यापूर्षसमासमुक्तया वृद्ध्या । ज्ञेयान्येवं भव्यैः सर्वज्ञाज्ञाविधानेन ॥६६॥ अन्वयार्थ - तस्य - उस अक्षरज्ञान । उपरि - ऊपर । क्रमेण - क्रम से। एकाक्षरादिवृद्ध्या - एक अक्षर आदि की वृद्धि से । संख्येयाः - संख्यात । वृद्धाः - वृद्धि होती है। एते - ये । एवं - इस प्रकार । अक्षरसमासबोधा: - अक्षरसमास ज्ञान । संभवन्ति - होते हैं। विश्वज्ञाः - विश्व को जानने वाले। संख्येयाक्षरजनितं - अक्षर समास के ऊपर संख्यात अक्षरवृद्धि से जनित ज्ञान को। पदविज्ञानं - पदज्ञान । वदन्ति - कहते हैं। प्रागवत् - पहले (अक्षर समास) के समान पदज्ञान के। उपरि - ऊपर। वृद्धा - वृद्धि होने पर। पदसमासाख्या: - पदसमास नामक । बोधाः - ज्ञान । स्युः - होता है। एवं - इस प्रकार। सर्वज्ञाज्ञाविधानेन - सर्वज्ञ भगवान की आज्ञा के विधान से। उक्तया - ऊपर कथित। वृद्ध्या - वृद्धि से। आपूर्वसमासं - पूर्व समास पर्यन्त । संघातादिज्ञानानि - संघात, संघातसमास आदि ज्ञान । भव्यैः - भव्यों को। ज्ञेयानि • जानना चाहिए। अर्थ - एक अक्षर ज्ञान के ऊपर असंख्यात लोकप्रमाण अक्षर की वृद्धि अक्षरसमास है, उसके बाद पदज्ञान होता है। पद तीन तरह के होते हैं: अर्थ पद, प्रमाणपद और मध्यम पद । इनमें से "सफेद गौ को रस्सी से बाँधो", “अग्नि को लाओ” इत्यादि अनियत अक्षरों के समूह रूप किसी अर्थ विशेष के बोधक वाक्य को अर्थपद कहते हैं। आठ आदिक अक्षरों के समूह रूप किसी अर्थविशेष के बोधक वाक्य को अर्थपद कहते हैं। आठ आदिक अक्षरों के समूह को प्रमाणपद कहते हैं, जैसे - अनुष्टुप् श्लोक के एक पाद में आठ अक्षर होते हैं। ___ इसी तरह दूसरे छन्दों के पदों में भी उस छन्द के लक्षण के अनुसार नियत संख्या में अक्षरों का प्रमाण न्यूनाधिक होता है। परन्तु इस प्रकरण में कथित पद के अक्षरों का प्रमाण सर्वदा के लिए निश्चित है, इसी को मध्यम पद कहते हैं। परमागम में द्रव्यश्रुत का ज्ञान कराने के लिए जहाँ पदों का प्रमाण बताया गया है, वहाँ यह मध्यम पद ही समझना चाहिए। एक पद के आगे भी क्रम से एक - एक अक्षर की वृद्धि होते - होते संख्यात हजार पदों की वृद्धि हो जाय उसको संघात नामक श्रुतज्ञान कहते हैं। एक पद के ऊपर और संघात नामक ज्ञान के पूर्व जितने ज्ञान के भेद हैं, वे सब पदसमास के भेद
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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