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________________ आराधनासमात्र जो परोक्ष रूप से सब वस्तुओं को अनेकान्तरूप दर्शाता है; संशय, विपर्यय आदि से रहित उस ज्ञान को श्रुतज्ञान कहते हैं। अर्थात् श्रुतज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होने पर नाना पदार्थों के समीचीन स्वरूप का निश्चय कर सकने वाले अस्पष्ट ज्ञान को श्रुत कहते हैं। यह श्रुतज्ञान अर्थलिंगज और शब्दलिंगज के भेद से दो प्रकार का है। पर्याय, पर्यायसमास, अक्षर, अक्षरसमास, पद, पदसमास, संघात, संघातसमास, प्रतिपत्ति, प्रतिपत्तिसमास, अनुयोगद्वार, अनुयोगद्वारसमास, प्राभृतप्राभृत, प्राभृतप्राभृत समास, प्राभृत, प्राभृतसमास, वस्तु, वस्तु समास, पूर्व और पूर्व समास इस तरह श्रुतज्ञान के बीस भेद हैं। ये अर्थलिंगज श्रुतज्ञान के भेद सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक के जो सबसे जघन्य ज्ञान होता है, उसको पर्यायज्ञान कहते हैं। इसमें विशेषता केवल यही है कि इसके आवरण करने वाले कर्म के उदय का फल इसमें (पर्यायज्ञान में) नहीं होता, किन्तु इसके अनन्तर ज्ञान के (पर्यायसमास) प्रथम भेद में ही होता है। सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव के उत्पन्न होने के प्रथम समय में सबसे जघन्य ज्ञान होता है। इसी को पर्याय ज्ञान कहते हैं। इतना ज्ञान हमेशा ही निरावरण तथा प्रकाशमान रहता है। सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव के अपने जितने भव (छह हजार बारह) सम्भव हैं, उनमें भ्रमण करके अन्त के अपर्याप्त शरीर को तीन मोड़ाओं के द्वारा ग्रहण करने वाले जीव के प्रथम मोड़ा के समय में सर्वजघन्य ज्ञान होता है। ___सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव के उत्पन्न होने के प्रथम समय में स्पर्शन इन्द्रियजन्य मतिज्ञानपूर्वक लब्ध्यक्षररूप श्रुतज्ञान होता है। लब्धि नाम श्रुतज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम का है और अक्षर नाम अविनश्वर का है, इसलिए इस ज्ञान को लब्ध्यक्षर कहते हैं क्योंकि इस क्षयोपशम का कभी विनाश नहीं होता, कम-से-कम इतना क्षयोपशम तो जीव के रहता ही है। सर्व जघन्य पर्याय ज्ञान के ऊपर क्रम से अनन्तभाग वृद्धि. असंख्यात भाग वृद्धि, संख्यात भाग वृद्धि, संख्यात गुण वृद्धि, असंख्यात गुण वृद्धि, अनन्त गुण वृद्धि ये छह वृद्धि होती हैं। ___ इस प्रकार अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान में असंख्यात लोकप्रमाण षट्स्थान होते हैं। ये सब पर्यायसमास ज्ञान के भेद हैं। असंख्यात लोकप्रमाण षट्स्थानों में अन्त के षट्स्थान की अन्तिम उर्वक वृद्धि से युक्त उत्कृष्ट पर्यायसमास ज्ञान से अनन्तगुणा अर्थाक्षर ज्ञान होता है। यह अर्थाक्षर सम्पूर्ण श्रुतज्ञान रूप है। एकाक्षरादिवृद्ध्या वृद्धास्तस्योपरि क्रमेणैते । हाक्षरसमासबोधा: संख्येया: संभवन्त्येषम् ॥६४ ।।
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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