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________________ आराधनासमुच्चयम् ०७० क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि तिर्यंच और मनुष्य मरकर स्वर्ग के देव होते हैं और देव, नारकी मरकर कर्मभूमिया मनुष्य होते हैं। देवायु को छोड़कर अन्य तीन आयु का बंध हो जाने पर प्राणी देशव्रत और महाव्रत को धारण नहीं कर सकते। सम्यग्दर्शन जिसके नहीं है उसके ज्ञान, चारित्र और तप संसार का उच्छेद करने में समर्थ नहीं हैं। अर्थात् सम्यादर्शन सहित ही ज्ञान सम्यग्ज्ञान, चारित्र सम्यक्चारित्र और तप सम्यक् तप कहलाता है। वही सम्यग्ज्ञान, चारित्र, तप संसार का उच्छेद करने में समर्थ है। ज्ञान, चारित्र और तप के आधार का कथन वृक्षस्य यथा मूलं प्रासादस्य च यथा हाधिष्ठानम्। विज्ञानचरिततपसां तथाहि सम्यक्त्वमाधारः ॥३८॥ अन्वयार्थ - यथा - जैसे । वृक्षस्य - वृक्ष का। आधारः - आधार ! मूलं - जड़ है। यथा - जैसे। हि - निश्चय से। प्रासादस्य - प्रासाद (महल) का। आधारः - आधार ! अधिष्ठानं - नींव है। तथा - वैसे ही। विज्ञानचरिततपसां - विज्ञान, चारित्र और तप का। आधारः - आधार। हि - निश्चय से। सम्यक्त्वं - सम्यग्दर्शन है। भावार्थ - वृक्ष का आधार जड़ है, जड़ के कट जाने पर वह वृक्ष फल-फूल एवं छाया देने में समर्थ नहीं रहता है; धराशायी हो जाता है। महल, घर का आधार उसकी नींव है। नींव यदि मजबूत नहीं है तो वह घर स्थिर नहीं रह सकता, गिर जाता है, उसमें मानव नहीं रह सकते। उसी प्रकार ज्ञान, चारित्र और तप का आधार सम्यग्दर्शन है। इसलिए सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान, चारित्र और तप संसार की संतति का उच्छेद करने में समर्थ नहीं हैं, क्योंकि समीचीन ज्ञान, चारित्र तथा तप के अभाव में संसारच्छेद नहीं हो सकता और ज्ञान, चारित्र और तप में समीचीनता सम्यग्दर्शन से ही आती है। सम्यादर्शन का माहारण्य दर्शननष्टो नष्टो न तु नष्टो भवति चरणतो नष्टः। दर्शनमपरित्यजतां परिपतनं नास्ति संसारे ॥३९॥ अन्वयार्थ - दर्शननष्टः - दर्शन (सम्यग्दर्शन) से नष्ट (भ्रष्ट) हो। नष्ट; - नष्ट (भ्रष्ट)। तु - परन्तु। चरणतः - चारित्र से। नष्टः - भ्रष्ट । नष्टः - नष्ट । न - नहीं है। दर्शनं - दर्शन को। अपरित्यजतां - नहीं छोड़ने वाले का । संसारे - संसार में। परिपतनं - परिपतन (भ्रमण) | नास्ति - नहीं है। भावार्थ - सम्यग्दर्शन से रहित प्राणी भ्रष्ट है, संसार में भ्रमण करता रहता है, उसका संसारवास छूट नहीं सकता। चारित्र से भ्रष्ट भ्रष्ट नहीं है क्योंकि उसको दृढ़ विश्वास है कि चारित्र धारण किये बिना
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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