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________________ आराधनासमुख्ययम् ७१ मुक्ति नहीं होगी। वह एक दिन चारित्र अवश्य धारण करेगा, परन्तु जिसको आत्मा-अनात्मा का हेयोपादेय का भान ही नहीं है, वह संसार से कैसे छूट सकता है ? अतः सम्यग्दर्शन को नहीं छोड़ने वाला संसार में भ्रमण नहीं करता। सम्यग्दर्शन का माहात्म्य त्रैलोक्यस्य च लाभाद्दर्शनलाभो भवेत्तरां श्रेष्ठः । लब्धमपि त्रैलोक्यं परिमितकाले यतश्च्यवते ॥४० ।। निर्वाणराज्यलक्ष्म्या: सम्यक्त्वं कण्ठिकामतः प्राहुः । सम्यग्दर्शनमेव निमित्तमनन्ताव्ययसुखस्य ॥४१॥ अन्वयार्थ - त्रैलोक्यस्य - तीन लोक के। लाभात् - लाभ की अपेक्षा। दर्शनलाभ: - सम्यग्दर्शन का लाभ । श्रेष्ठः - श्रेष्ठतर। भवेत्तरां - होता है। यत: - क्योंकि । लब्धं - प्राप्त हुआ। अपि - भी। त्रैलोक्यं - तीन लोक का राज्य । परिमित काले - परिमित काल में। च्यवते - नष्ट हो जाता अतः - इसलिए। सम्यक्त्वं - सम्यग्दर्शन को। निर्वाणराज्यलक्ष्म्या: - निर्वाणराज्यलक्ष्मी का। कण्ठिका - कण्ठाभरण। प्राहुः - कहा है। अनन्ताव्ययसुखस्य - अनन्त अव्यय सुख का। निमित्तं - निमित्त । सम्यग्दर्शनं - सम्यग्दर्शन। एव - ही है। __ अर्थ - तीन लोक की सम्पदा की प्राप्ति से भी श्रेष्ठतर प्राप्ति है सम्यग्दर्शन की। अर्थात् सम्यग्दर्शन तीन लोक की सम्पदा से भी श्रेष्ठ है क्योंकि तीन लोक की सम्पदा परिमित काल तक रहने वाली है, नाशवंत है, परन्तु सम्यग्दर्शन की सम्पदा स्थायी है, नित्य रहने वाली है। ___सम्यग्दर्शन ही निर्वाणराज्यलक्ष्मी के कण्ठ का आभूषण है और अनन्त अव्यय सुख का निमित्त यह सम्यग्दर्शन आराधना का स्वरूप है, अतः निरंतर सम्यग्दर्शन की आराधना करनी चाहिए। यह सम्यग्दर्शन सर्वदुखों का नाश करने वाला है, अतः इसमें प्रमादी मत बनो। भावार्थ - सम्यक्त्व का आचरण करने वाले धीर पुरुष संख्यात व असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा करते हैं तथा संसारी जीवों की मर्यादा रूप जो सर्वदुख हैं उनका नाश करते हैं। जिनोपदिष्ट सम्यग्दर्शन को अन्तरंग भावों से धारण करो, क्योंकि यह सर्वगुणों में और रत्नत्रय में सार है तथा मोक्षमन्दिर की प्रथम सीढ़ी है। जिस प्रकार भाग्यशाली मनुष्य कामधेनु, कल्पवृक्ष, चिन्तामणिरत्न और रसायन को प्राप्त कर मनोवांछित सुख को प्राप्त होता है, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन से भव्य जीवों के सर्व प्रकार के सर्वोत्कृष्ट सुख
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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