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________________ आराधनाममुच्चयम् *६९ पुद्गलपरिवर्ता, परतो व्यालीढवेदकोपशमी। वसतः संसाराब्धौ क्षायिकदृष्टिर्भवचतुष्कः ॥३६॥ अन्वयार्थ - व्यालीढवेदकोपशमी - प्राप्त किया है वेदक और उपशम सम्यग्दर्शन को जिन्होंने ऐसे प्राणी। परतः - उत्कृष्ट से। पुद्गलपरिवधि - अर्धपुद्गल परिवर्तन तक। संसाराब्धौ - संसारसमुद्र में। वसत: - रहते हैं। क्षायिकदृष्टि: - क्षायिक सम्यग्दृष्टि। भवचतुष्कः - उत्कृष्ट चार भव तक संसारसमुद्र में रहता है। ___ भावार्थ - वेदक सम्यग्दर्शन और उपशम सम्यग्दर्शन हो जाने पर यह अधिक-से-अधिक अर्धपुद्गल परिवर्तन तक संसार में रह सकता है, इसके भीतर-भीतर मोक्ष में चला जाता है। क्षायिक सम्यग्दृष्टि चार भव तक संसार में रह सकता है, इससे अधिक नहीं। कम-से-कम अन्तर्मुहूर्त में मोक्ष में चला जाता है। सम्यग्दर्शन के भेद और उसका माहात्म्य अथवा द्वेधा दशधा बहुधा सम्यक्त्वमूनमेतेन। ज्ञानचरित्रतपो वै नालं संसारमुच्छेत्तुम् ।।३७॥ अन्वयार्थ - अथवा - अथवा। सम्यक्त्वं - सम्यग्दर्शन। द्वेथा - दो प्रकार का । दशधा • दश प्रकार का। बहुधा - बहुत प्रकार का है। एतेन - इस सम्यग्दर्शन से । ऊनं - रहित । ज्ञानचारित्रतपः - ज्ञान, चारित्र और तप। वै - निश्चय से। संसारं - संसार को। उच्छेत्तुं - नाश करने के लिए। अलं - समर्थ। न - नहीं है। भावार्थ - वह सम्यग्दर्शन सराग, वीतराग वा निश्चय और व्यवहार के भेद से दो प्रकार का है। आज्ञा आदि के भेद से दश प्रकार का है। क्षायिक, औपशमिक और क्षायोपशमिक के भेद से तीन प्रकार का है। शब्दों की अपेक्षा संख्यात प्रकार का है तथा श्रद्धान करने वाले की अपेक्षा असंख्यात प्रकार का है और श्रद्धान करने योग्य पदार्थों का अध्यवसायों की अपेक्षा सम्यग्दर्शन अनन्त प्रकार का भी है। आज्ञादि दश प्रकार के सम्यग्दर्शन का कथन पूर्व में दसवें श्लोक के अर्थ में किया है। क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव कभी भी मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं होता, किसी प्रकार का सन्देह भी नहीं करता और मिथ्यात्वजन्य अतिशयों को देखकर विस्मय को भी प्राप्त नहीं होता। यदि मिथ्यात्व अवस्था में आयुबंध कर लिया है, तो क्षायिक सम्यग्दृष्टि चारों गतियों में उत्पन्न हो सकता है, परन्तु प्रथम नरक के नीचे नहीं जाता। तिर्यंचों में एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय, कर्मभूमिया तिर्यंच नहीं हो सकता, पहले आयु का बंध नहीं किया है तो नियम से देव ही होता है। देव, नारकी मरकर कर्मभूमिया मनुष्य होते हैं। मनुष्य, तिर्यंच मरकर स्वर्ग के देव होते हैं। ___ चारों आयु में से किसी भी आयु का बंध हो जाने पर तीनों प्रकार के सम्यग्दर्शन हो सकते हैं, परन्तु मरते समय उपशम सम्यक्त्व छूट जाता है। यदि द्वितीयोपशम सम्यग्दर्शन है तो मरकर स्वर्गवासी देव हो सकता है।
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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