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आराधनासमुच्चयम् ०६८
सम्यक्त्व मिथ्यात्व की सत्ता व्युच्छित्ति करके कृतकृत्य वेदक हो जाता है, उस समय वह सम्यक्त्व प्रकृति का वेदन करता है । अत: वेदव (क) है। कृतकृत्य वेदक अवस्था में मरण भी हो सकता है, ऐसे वेदक सम्यग्दृष्टि ने यदि पूर्व मिथ्यात्व अवस्था में आयु का बंध कर लिया है, तो वह चारों गतियों में जा सकता है, परन्तु नरक में जायेगा तो प्रथम नरक में ही जाता है, नीचे के छह नरकों में नहीं जाता। यदि देवों में उत्पन्न होता है तो भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी देवों में उत्पन्न नहीं होता, वैमानिक देवों में उत्पन्न होता है। स्वर्ग में भी देवांगनाओं तथा किल्विष जाति के देवों में उत्पन्न नहीं होता । तिर्यंच गति में एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय में उत्पन्न नहीं होता है तथा कर्मभूमिया तिर्यंचों में उत्पन्न नहीं होता ।
बद्धायुष्कचतुष्कोऽप्युपैति सम्यक्त्वमुदितभेदयुतम् । विरतिद्वितीयं बद्धः स्वर्गायुष्यात्परं नैव ॥ ३५ ॥
अन्वयार्थ - बद्धायुष्कचतुष्कः - चारों ही आयु का बाँधने वाला। उदितभेदयुतं - ऊपर कथित भेद वाले। सम्यक्त्वं सम्यग्दर्शन को । उपैति प्राप्त होता है। विरतिद्वितीयं सकल या विकल दोनों प्रकार के व्रतों से युक्त प्राणी । स्वर्गायुष्यात् स्वर्ग आयु से । परं दूसरी आयु का । बद्धः - बंध। नैव • नहीं करता है अथवा स्वर्ग आयु से दूसरी आयु का जिसके बंध है, वह देशसंयम और सकलसंयम को प्राप्त नहीं होता है।
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अर्थ - चारों ही आयु के बाँधने वाले मिथ्यादृष्टि तीनों प्रकार के सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर सकते हैं, परन्तु जिन्होंने देवायु को छोड़कर अन्य आयु का बंध कर लिया है वे देशव्रती और महाव्रती नहीं हो सकते।
भावार्थ - क्षायिक सम्यग्दर्शन का प्रस्थापक (प्रारंभक) तो मनुष्य ही होता है, परन्तु निष्ठापक चारों गतियों के जीव हो सकते हैं। चारों गतियों में नरक गति में केवल प्रथम नरक में प्रथम पाथड़े में ही निष्ठापना करता है, अन्य पृथ्वियों में नहीं ।
तिर्यंचों में भोगभूमिज में पुरुषवेदी होता है, स्त्रीवेदी नहीं । मनुष्य गति में कर्मभूमिज मनुष्य प्रारंभक और निष्ठापक दोनों ही होते हैं, परन्तु भोगभूमिज मनुष्य क्षायिक सम्यग्दर्शन के निष्ठापक हो सकते हैं, प्रारंभक नहीं।
देवगति में वैमानिक देव क्षायिक सम्यग्दर्शन के निष्ठापक होते हैं, अन्य भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी देव तथा सर्व प्रकार की देवांगनाएँ नहीं। क्योंकि जिन जीवों ने मिथ्यात्व अवस्था में तिर्यंचायु, नरकायु और मनुष्यायु का बंध कर लिया है, तत्पश्चात् क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्त किया है, ऐसे सम्यग्दृष्टि जीव मरकर प्रथम नरक के नारक भोगभूमिया तिर्यंच, भोगभूमिया भानव हो सकते हैं, परन्तु स्त्री पर्याय में उत्पन्न नहीं होते। यदि पूर्व में आयुबंध नहीं किया है तो नियम से स्वर्ग के देव होते हैं या मोक्ष में जाते हैं। मोहनीय कर्म की सात कर्मप्रकृतियों के क्षय से उत्पन्न होने वाला यह क्षायिक सम्यग्दर्शन मेरु के समान निष्कम्प, निर्मल, अक्षय और अनन्त होता है।