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________________ आराधनासमुच्चयम् ०६७ सम्यग्दृष्टि जीव चतुर्थ गुणस्थान से लेकर अप्रमत्त गुणस्थान पर्यन्त चार गुणस्थानों में सर्वप्रथम तीन करण के द्वारा अनन्तानुबंधी कषाय का विसंयोजन करता है। तदनन्तर तीन शुभ लेश्याओं की वृद्धि और कषायों के अनुभाग की हानि करता हुआ क्षपक श्रेणी के प्रवेशकाल में होने वाले करणों के समान तीन करणों के द्वारा दर्शन मोहनीय की तीन प्रकृतियों का नाश कर क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है। क्षायिकसम्यग्दर्शन-माप्तोक्तार्थेषु निश्चलात्मरुचिः। वातैर्मन्दरगिरिवन्न विचलति कुहेतुदृष्टान्तैः ।।३२॥ उत्पद्यते हि वेदकदृष्टिः स्वमरेषु कर्मभूमिनृषु । कृतकृत्यक्षायिक दृग्बद्धायुष्कश्चतुर्गतिषु ।।३३॥ षट्स्वधः पृथ्वीषु ज्योतिर्वनभवनजेषु च स्त्रीषु । विकलैकेन्द्रियजातिषु सम्यग्दृष्टे चोत्पत्तिः ॥३४॥ अन्वयार्थ - आप्तोक्तार्थेषु - आप्त द्वारा कथित पदार्थों में। निश्चलात्मरुचिः - निश्चल है आत्मरुचि जिसकी ऐसे क्षायिक सम्यग्दृष्टि का। कुहेतुदृष्टान्तैः - खोटे हेतु और दृष्टान्तों से। क्षायिकसम्यग्दर्शनं - क्षायिक सम्यग्दर्शन | न - नहीं। विचलति - विचलित होता है। वातै: - वायु के वेग से। मन्दरगिरिवत् - सुमेरु पर्वत के समान।। हि - निश्चय से। वेदकदृष्टि: - वेदक सम्यग्दृष्टि। स्वमरेषु - स्वर्ग के देवों में और । कर्मभूमिनृषु - कर्मभूमिया मनुष्यों में ही। उत्पद्यते - उत्पन्न होता है। परन्तु। बद्धायुष्क: - जिसने मिथ्यात्व अवस्था में आयु का बन्ध कर लिया है ऐसा । कृतकृत्य क्षायिकदृग् - कृतकृत्य क्षायिक सम्यग्दृष्टि (वेदक सम्यग्दृष्टि) और क्षायिक सम्यग्दृष्टि । चतुर्गतिषु • चारों गतियों में । उत्पद्यते - उत्पन्न होते हैं। अधः - नीचे। षट्सु - छह । पृथ्वीषु • पृथ्वियों में। ज्योतिर्वनभवनजेषु - ज्योतिष्क, व्यन्तर और भवनवासियों में। स्त्रीषु - सर्वप्रकार की स्त्रियों में। च - और। विकलैकेन्द्रियजातिषु - विकलेन्द्रिय और एकेन्द्रिय में। सम्यग्दृष्टेः - सम्यग्दृष्टि की । उत्पत्तिः - उत्पत्ति । न - नहीं है। भावार्थ - क्षायिक सम्यग्दृष्टि जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कथित अर्थ (पदार्थ) में निश्चलमति - दृढमति होता है। जैसे सुमेरु पर्वत सारे संसार को कम्पित करने वाली महाप्रलय काल की वायु के वेग से भी कम्पित नहीं होता, स्वकीय स्थिरता को नहीं छोड़ता उसी प्रकार क्षायिक सम्यग्दृष्टि कुहेतुओं और कुदृष्टान्तों के द्वारा तत्त्वश्रद्धान से कभी च्युत नहीं होता। उसका मन मेरु के समान स्थिर रहता है। वेदक (क्षायोपशमिक) सम्यग्दृष्टि स्वर्गवासी देवों में और कर्मभूमिया मनुष्यों में ही उत्पन्न होते हैं, अन्य स्थानों में नहीं । अर्थात् मनुष्य और तिर्यंच वेदक सम्यग्दृष्टि मरकर स्वर्ग के देवों में ही उत्पन्न होते हैं और देव एवं नारकी कर्मभूमिया मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं। परन्तु जो कृतकृत्यवेदक हैं अर्थात् जिन्होंने तीन करण के द्वारा अनन्तानुबंधी कषाय का क्षय कर दिया है; तदनन्तर तीन करण के द्वारा मिथ्यात्व और
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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