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आराधनासमुच्चयम् ६६
अन्वयार्थ वेदकदृष्टि: अविरतसम्यग्दृष्टि आदि । चतुर्षु - चार
क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि । अविरतसम्यग्दृष्ट्याद्येषु गुणस्थानेषु गुणस्थानों में । कस्मिंश्चित् - किसी एक गुणस्थान में । अपि भी। त्रिकरण्या तीन करण के द्वारा। आदिकषायान् - प्रथम (अनन्तानुबंधी ) क्रोध, मान, माया और लोभ रूप कषायों का । विसंयोज्य - विसंयोजना करके । निर्वृतियोग्ये - मोक्ष और। वयसि के योग्य । क्षेत्रे - क्षेत्र में काले काल में। लिंगे लिंग में भवे भव में। तथा - वय में । शुभलेश्यात्रयवृद्धिं - तीन शुभलेश्या की वृद्धि को च और । कषायहानिं - कषायों की
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हा को संविदधत् करता हुआ । क्षपकश्रेणीसदृशप्रवेशकालान्तरैः क्षपक श्रेणी सदृश प्रवेश काल
के अन्तर में होने वाले । त्रिभिः - तीन । करणैः करणों के द्वारा । दृङ्मोहत्रयं तीन दर्शनमोह को ।
हत्वा
नाश कर । क्षायिकीं क्षायिक । दृष्टिं - सम्यग्दर्शन को । आप्नोति
प्राप्त करता है।
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भावार्थ - सर्वप्रथम उपशम सम्यग्दर्शन होता है, तदनन्तर क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन होता है । द्वितीयोपशमिक सम्यग्दर्शन और क्षायिक सम्यग्दर्शन क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन से ही होते हैं।
अविरतादि चार गुणस्थानों में किसी एक गुणस्थान में क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि तीन करण (अधःकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण) के द्वारा सर्वप्रथम अनन्तानुबंधी चार कषायों का विसंयोजन ( सत्ताव्युच्छित्ति) करता है। इन तीन करणों का स्वरूप पूर्व में कह दिया गया है। तदनन्तर निर्वृत्तियोग्य क्षेत्र, काल, भव तथा वय में ही क्षायिक सम्यग्दर्शन की योग्यता है।
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जिस क्षेत्र में, जिस काल में, जिस भव में तथा जिस वय में निर्वाण की प्राप्ति होती है, उसी काल आदि में क्षायिक सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है।
काल- जैसे मोक्षप्राप्ति के योग्य चतुर्थ काल है अर्थात् चतुर्थ काल में मोक्ष की प्राप्ति होती है, वैसे ही क्षायिक सम्यग्दर्शन की प्राप्ति भी चतुर्थ काल में ही होती है अर्थात् चतुर्थ काल में ही यह जीव क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सकता है, अन्य काल में नहीं ।
जैसे १५ कर्मभूमि रूप क्षेत्र में ही तीर्थंकर होते हैं, अन्य क्षेत्र में नहीं होते, उसी प्रकार क्षायिक सम्यग्दर्शन का प्रारंभक कर्मभूमिया जीव ही होता है, अन्य नहीं ।
जैसे मोक्षपद कर्मभूमिया मनुष्यों को ही प्राप्त होता है, अन्य भव में नहीं; उसी प्रकार क्षायिक सम्यग्दर्शन को भी कर्मभूमिया मनुष्य ही प्राप्त करते हैं।
मोक्षपद पुरुषलिंग से ही प्राप्त होता है, अन्य स्त्री, नपुंसक वेद से मोक्षपद प्राप्त नहीं होता, उसी प्रकार क्षायिक सम्यग्दर्शन की प्राप्ति भी पुरुषवेद वाले को ही होती है, अन्य वेद वाले को नहीं ।
वय वय का अर्थ उम्र है। जैसे जन्म से आठ वर्ष के बाद ही मोक्षपद प्राप्त होता है। उसी प्रकार
जन्म से आठ वर्ष के बाद ही क्षायिक सम्यग्दर्शन के योग्य होता है। इसलिए श्लोक में निर्वृति योग्य क्षेत्र, काल, भव, लिंग और वय कहा है। निर्वाण के योग्य क्षेत्र, काल, भव, लिंग और वय में क्षायोपशमिक