SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 355
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आराधनासमुच्चयम् * ४६ इस प्रकार बाईस परिषहों को सहन करना और सत्त्वादि भावनाओं का अभ्यास करना तप आराधना का उपाय है। आराधना उपाय का कथन पूर्ण हुआ। चार प्रकार की आराधना का फल आराधनाचतुष्कप्रभवं फलमपि चतुर्विधं भवति । तत्रैकैकं द्विविधं त्वमुख्यमुख्यप्रभेदेन ॥२४१ ।। अन्वयार्थ - आराधनाचतुष्कप्रभवं - चार आराधना से उत्पन्न । फलं - फल। अपि - भी। चतुर्विधं - चार प्रकार का। भवति - होता है। तु - परन्तु । तत्र - उसमें। एकैकं - एक-एक का। अमुख्य-मुख्यप्रभेदेन - अमुख्य और मुख्य के भेद से। द्विविथं - दो प्रकार का है। अर्थ - चार आराधना से उत्पन्न होने वाला फल भी चार प्रकार का है - दर्शनाराधना का फल, ज्ञानाराधना का फल, चारित्र आराधना का फल और तपाराधना का फल। इनमें एक-एक आराधना का फल, मुख्य और अमुख्य के भेद से दो-दो प्रकार का है। ___प्राणियों के द्वारा की गई कोई भी क्रिया (मन, वचन और काय की चेष्टा) निष्फल निरर्थक नहीं होती। क्रिया का फल अवश्य प्राप्त होता है। आराधना भी क्रिया है। मन, वचन और काय की चेष्टा है। अत: इसका भी फल अवश्य है। उनमें एक-एक आराधना का मुख्य और अमुख्य के भेद से फल दो - दो प्रकार का है। सम्यग्दर्शन आराधना का मुख्य और अमुख्य फल एकेन्द्रियजात्यादिष्वनुद्भवः संभवस्तु नाकादि-। निलयेष्वमुख्यफलमिह सम्यक्त्वाराधनायास्तत् ॥२४२।। नि:शेषदुरितनिवहक्षयकारणमचलरूपतत्त्वरुचिः। क्षायिकसम्यक्त्वं तन्मुख्यफलं बुधजनाभीष्टम् ॥२४३॥ अन्वयार्थ - इह - इस लोक में। सम्यक्त्वाराधनायाः - सम्यग्दर्शनाराधना का। एकेन्द्रियजात्यादिषु - एकेन्द्रियादि जातियों में। अनुद्भवः - उत्पत्ति नहीं होना है। तु - और | नाकादिनिलयेषु - स्वर्गादि स्थानों में। संभवः - उत्पत्ति होना। तत् - वह । अमुख्यफलं - अमुख्यफल नि:शेषदुरितनिवहक्षयकारणं - सम्पूर्ण पाप-प्रकृतियों के समूह के क्षय की कारणीभूत । अचलरूपतत्त्वरुचिः - अचल रूप तत्त्व रुचि । क्षायिक सम्यक्त्वं - क्षायिक सम्यक्त्व है। तत् - वह । बुधजनाभीष्टं - विद्वानों को अभीष्ट । मुख्य फलं - मुख्य फल है।
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy