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आराधनासमुच्चयम् - ३४५
में आसक्त न होकर उत्कृष्ट रूप चारित्र धारण करता है ! चार प्रकार के उपसर्गों के साथ भूख-प्यास, शीतउष्ण वगैरह बाईस प्रकार के दुखों को उत्पन्न करने वाली बाईस परिषह रूपी सेना दुर्धर संकट रूपी वेग से युक्त होकर जब मुनिराज पर आक्रमण करती है, तब अल्पशक्तिधारक मुनिगण को भय होता है। धेर्यरूपी परिधान जिसने बाँधा है, ऐसा पराक्रमी मुनि धृति भावना हृदय में धारण कर परिषहों को सहन करने में समर्थ होता है, उसे धृतिबल भावना कहते हैं।
प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग के भेद से चार प्रकार के आगम हैं, उनका अभ्यास करना श्रुत भावना है।
मूल और उत्तर गुण आदि के अनुष्ठान के विषय में गाढ़ वृत्ति होना सत्त्व भावना है।
अथवा घोर उपसर्गविजयी सुकुमाल आदि के गुणों का चिंतन करके परिषहादि उपसर्ग आने पर व्रतों से च्युत नहीं होना धृति भावना है।
ज्ञान, दर्शन, लक्षण वाली मेरी आत्मा से पौत्र-पुत्र आदि सर्व भिन्न हैं। ये संयोगी हैं, मेरे स्वरूप वा मेरा हित करने वाले नहीं हैं, ऐसा चिंतन एकत्व भावना है।
मान में, अपमान में, सुख में, दुःख-हानि में, लाभ में समता रखना संतोष भावना है।
सर्व जीवों के साथ मैत्री-भाव, गुणीजनों के प्रति प्रमोद भाव, दीन-दुःखी जीवों पर कारुण्य भाव और दुर्जन एवं कुमार्गरतों पर माध्यस्थ भाव ये आत्मकल्याणकारी चार भावनाएँ हैं।
अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्म रूप स्वतत्त्व का चिंतन करने योग्य १२ भावनाएं हैं। दर्शन विशुद्धि आदि १६ कारण भावनाएँ
वैराग्य भावना, एक-एक व्रत की पाँच-पाँच भावना आदि अनेक प्रकार से भावनाओं का कथन किया है, परन्तु आराधना में ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप की भावनाओं को मुख्य कहा है।
संसार और शरीर का चिंतन करके उनसे विरक्त होना वैराग्य भावना है। संवेग और वैराग्य के लिए संसार एवं शरीर का चिंतन करना परमावश्यक है। विषयों से विरक्त होना विराग है और विराग के भाव या कर्म को वैराग्य कहते हैं।
माध्यस्थ, समता, उपेक्षा, वैराग्य, साम्य, अस्पृहा, वैतृष्ण्य, परम शांति ये सर्व एकार्थवाची हैं। इनसे वैराग्य, समता, निस्पृहता उत्पन्न होती है।
शारीरिक अशुचि का विचार करने से शरीर से विरक्ति होती है और संसार के स्वभाव का चिंतन करने से सांसारिक दुःखों से भय उत्पन्न होता है और संसार से अरुचि उत्पन्न होती है।