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________________ आराधनासमुच्चयम् ३१६ उसने कहा - "सेठजी ! आपने ही मुझे बचाया है। आप जैनधर्म के सच्चे भक्त हो। लोगों के समक्ष आपने मुझे सज्जन धर्मात्मा कह कर पहचान करायी अतः मैं भी चोरी छोड़कर सच्चा धर्मात्मा बनने का प्रयत्न करूंगा। सच में, जैनधर्म महान् है और आपके जैसे सम्यग्दृष्टि जीवों को ही वह शोभा देता है।" इस प्रकार उस सेठ के उपगृहन गुण से धर्म की प्रभावना हुई। वारिषेण जिनधर्म से अथवा सम्यग्दर्शन एवं सम्यक्चारित्र से च्युत होते हुए प्राणियों अथवा स्वयं अपने आप को जिनधर्म में स्थिर करना स्थितीकरण अंग है। मगध देश के राजा श्रेणिक की प्राणप्रिया चेलना की कुक्षि से उत्पन्न कुमार वारिषेण चतुर्दशी के दिन सारे आरम्भ परिग्रह का त्याग कर कायोत्सर्ग मुद्रा से श्मशान में ध्यान कर रहा था। उसी दिन मगधसुन्दरी के मोहजाल में फंस कर विद्युत्चोर श्रीकीर्ति सेठ के गले का हार चुरा कर आ रहा था। हार के दिव्य तेज से सिपाहियों ने चोर समझ कर उसका पीछा किया पकड़ने के लिए | वह चोर भागता हुआ श्मशान की ओर आया तथा अपनी जान बचाने के लिए उसने वह हार कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थित वारिषेण के चरणों में डाल दिया और वहाँ से भाग छूटा। जब सिपाही वहाँ पहुँचे तो हार के प्रकाश में वारिषेण को पहचान कर भौंचक से रह गए। उन्होंने सोचा कि राजकुमार के माता-पिता श्रावक हैं। भागने में असमर्थता देख राजकुमार अपने आगे हार रखकर कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े हो गये हैं अपने पाप को छिपाने के लिए। अतः उन्होंने राजसभा में जाकर सारी बात राजा को कही। श्रेणिक का चेहरा क्रोध के मारे तमतमा उठा।उनके ओठ काँपने लगे, आँखों में क्रोध की चिनगारियाँ निकलने लगीं। उन्होंने गरज कर कहा - "देखो, इस पापी का नीच कर्म जो श्मशान में जाकर ध्यान करता है और लोगों को यह बतलाकर कि मैं बड़ा धर्मात्मा हूँ, ठगता है, धोखा देता है। पापी कुलकलंक है। जाना मैंने उसके धर्म का ढोंग । सच है दुराचारी व्यक्ति धोखा देने के लिए क्या-क्या अनर्थ नहीं करते ! जाओ, इस पापी को तलवार से दो टुकड़े कर यमराज के घर पहुंचा दो। उसके लिए मेरे यहाँ स्थान नहीं। स्वपुत्र के लिए राजा की ऐसी कठोर आज्ञा सुनकर सब चित्र लिखे से होकर महाराज की ओर एक नजर से देखने लगे। सब के नयनों से झर-झर पानी बहने लगा पर किसकी हिम्मत जो उनकी आज्ञा का प्रतिवाद कर सके। तत्काल जल्लाद को लेकर श्मशान में गये। ज्योंही जल्लाद ने वारिषेण पर तलवार का प्रहार किया कि पुष्पवृष्टि होने लगी। जय-जयकार शब्द से आकाश व्याप्त हो गया। तलवार का प्रहार फूलहार रूप में परिणत हो गया। ठीक ही है - पुण्य के उदय से अग्नि जल बन जाती है, समुद्र स्थल हो
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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