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आराधनासमुच्चयम् । ३१७
जाता है, सर्प हार रूप परिणत हो जाता है और विपत्ति सम्पत्ति रूप हो जाती है, इसीलिए सुख - इच्छुक प्राणी को पवित्र कार्यों द्वारा पुण्य उपार्जन करना चाहिए।
इस अलौकिक घटना को सुनकर राजा श्रेणिक को अपने अविचार पर बहुत पश्चाताप हुआ। वह तत्काल श्मशान में पहुंचा और उससे क्षमायाचना कर घर आने के लिए प्रार्थना की। परन्तु संसारस्वरूप के ज्ञाता वारिषेण ने घर जाने के लिए इन्कार कर दिया और तपोवन में जाकर दिगम्बर मुद्रा धारण कर ली।
घोर तपश्चरण करते हुए वारिषेण मुनि एक बार विहार करते हुए पलाशकूट नामक शहर में पहुंचे। वहाँ श्रेणिक के मंत्री का पुत्र पुष्पड़ाल रहता था। वारिषेण मुनि भिक्षार्थ पुष्पडाल के घर पर आये। वारिषेण को देखकर पुष्पडाल का हृदय गद्गद हो गया। उसने बड़ी भक्ति से मुनिराज का पड़गाहन किया। निरंतराय आहार होने के बाद महाराज का कमण्डलु लेकर पहुंचाने के लिए उनके साथ-साथ चल पड़ा। सोचा था कि थोड़ी दूर निकल जाने पर मुनिराज उसे घर लौटने के लिये कहेंगे परन्तु मुनिराज ने उसको घर लौटने के लिए नहीं कहा, इसके विपरीत उन्होंने पुष्पडाल के कल्याण की इच्छा से वैराग्य का उपदेश देकर उसे मुनिदीक्षा दे दी।
मुनिराज के उपदेश से मुनिव्रत अंगीकार करके भी पुष्पडाल का मन अपनी प्रियतमा की ओर लगा था। वह दिन-रात उसी का ध्यान करता था। कभी वह अपनी प्रियतमा का चित्र बनाता, कभी अत्यन्त अभ्यास के कारण यह अनुभव करता कि उसकी वल्लभा सामने खड़ी है और वह उसके चरणों में प्रणाम कर रही है। कभी स्वप्न में संयोग का सुख भोगता तो कभी वियोग का कष्ट उठाता । बारह वर्ष तक संयम का पालन तथा शास्त्राभ्यास करने पर भी उसकी विषयवासना नहीं मिटी।
उन काम, मोह और भोगों को धिक्कार हो जिनके वश होकर उत्तम मार्ग में चलने वाले भी अपना हित नहीं कर पाते।
एक दिन सुअवसर पाकर वारिषेण राजमन्दिर में गये। चेलना ने वारिषेण को देखकर उसके मन की परीक्षा करने के लिए दो आसन बिछा दिए। उनमें एक आसन रागियों के योग्य था और दूसरा विरागियों के योग्य । वारिषेण अपने मित्र के साथ विरागियों के योग्य आसन पर बैठ गया और बोला - “माता ! अपनी सब बहुओं को बुलाओ।" चेलना राजभवन में गई और वारिषेण की पत्नियों को वारिषेण के सम्मुख ले आई। सब रानियाँ मुनिराज को नमस्कार कर सम्मुख बैठ गईं। वे अपने रूप से देवांगनाओं को भी लज्जित कर रही थीं। उनके साथ पुष्पडाल की पत्नी सुदति भी आई, जो कानी थी और कोयले से भी अधिक काली थी।
वारिषेण मुनिराज के वचन सुनकर पुष्पडाल बहुत लज्जित हुआ। वह मुनिराज के चरणों में नमस्कार करके बोला - "प्रभो, आप धन्य हैं। आप मिथ्यात्व रूप पिशाच को नष्ट कर लोभ-पंक से