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________________ आराधनासमुच्चयम् ३१४ विद्याधर राजा ने रेवती माता का बहुत सम्मान किया और उनकी प्रशंसा करके सम्पूर्ण नगरी में उनकी महिमा फैला दी। राजमाता की ऐसी दृढ़ श्रद्धा और जिनमार्ग की ऐसी महिमा देख कर मथुरा नगरी के कितने ही जीव कुमार्ग छोड़कर जिनधर्म के भक्त बन गये और बहुत से जीवों की श्रद्धा दृढ़ हो गई। वीतराग देव द्वारा कथित स्वयंशुद्ध मोक्षमार्ग में मूर्ख वा अशक्त जनों के द्वारा लगाये हुए दोषों का आच्छादन करना उनको प्रगट न करना उपगूहन अंग है। उपगूहन, उपवृहण यह इस अंग के दो नाम हैं। उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि के द्वारा स्वकीय धर्म की वृद्धि करना उपवृहण तथा जैसे माता अपने पुत्र के अपराध को छिपाती है, वैसे ही यदि धर्मात्माओं के द्वारा दैववश या प्रमादवश कोई अपराध बन गया हो तो उसे छिपाना, प्रकट नहीं करना, जिनेन्द्रकथित उपगृहन अंग है, सम्यग्दर्शन की वृद्धि करने वाला है। जिनभक्त सेठ पादलिप्त नगर में एक सेठ रहता था, वह महान् जिनभक्त था, सम्यक्त्व का धारक था और धर्मात्माओं के गुणों की वृद्धि तथा दोषों का उपगूहन करने के लिए प्रसिद्ध था। पुण्य प्रताप से वह बहुत वैभव - सम्पन्न था। उसका सात मंजिला महल था। वहाँ सबसे ऊपर के भाग में उसने एक अद्भुत चैत्यालय बनाया था। उसमें बहुमूल्य रत्नों से बनाई हुई भगवान पार्श्वनाथ की मनोहर मूर्ति थी। उसके रत्नजड़ित तीन छत्र थे। उनमें एक नीलम रत्न बहुत ही कीमती थी। वह अन्धेरे में भी जगमगाता था। उस समय सौराष्ट्र के पाटलीपुत्र नगर का राजकुमार सुवीर कुसंगति से दुराचारी तथा चोर हो गया था, वह एक बार सेठ के जिनमन्दिर में आया। वहाँ उसका मन ललचाया-भगवान की भक्ति के कारण नहीं बल्कि कीमती नीलम रत्न की चोरी करने के भाव से। उसने चोरों की सभा में घोषणा की कि जो कोई उस जिनभक्त सेठ के महल से कीमती नीलम रत्न लेकर आयेगा उसे बड़ा इनाम मिलेगा। सूर्य नामक एक चोर उसके लिए तैयार हो गया। उसने कहा - "अरे ! इन्द्र के मुकुट में लगा हुआ रत्न भी मैं क्षण भर में लाकर दे सकता हूँ तो यह कौन सी बड़ी बात है !" लेकिन महल से उस रत्न की चोरी करना कोई सरल बात नहीं थी। वह चोर किसी भी तरह से वहाँ पहुँच नहीं पाया। इसलिए अन्त में एक त्यागी ब्रह्मचारी का कपटी वेश धारण करके वह उस सेठ के यहाँ पहुँचा। उस त्यागी बने चोर में वक्तृत्व की अच्छी कला थी। जिस किसी से वह बात करता उसे अपनी तरफ आकर्षित कर लेता, उसी तरह व्रत उपवास इत्यादि को दिखा-दिखा कर लोगों में उसने प्रसिद्धि भी पा ली थी तथा उसे धर्मात्मा समझकर जिनभक्त सेठ ने स्वयं चैत्यालय की देखरेख का काम उसे सौंप दिया। सूर्य चोर तो उस नीलम मणि को देखते ही आनन्दविभोर हो गया और विचार करने लगा - "कब मौका मिले और कब इसे लेकर भागूं ?"
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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