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________________ आराधनासमुच्चयम् ०३१३ से गया, परन्तु जिसके रोम-रोम में वीतराग देव बसे हुए हैं ऐसी रेवती रानी पर तो कुछ भी असर नहीं हुआ। उसे कोई आश्चर्य भी नहीं हुआ, उल्टे उसे तो लोगों पर दया आई। रेवती रानी सोचने लगी - "अरे रे ! परम वीतराग सर्वज्ञदेव, मोक्षमार्ग को दिखाने वाले भगवान को भूल कर मूढ़ता से लोग इन्द्रजाल में कैसे फंस रहे हैं ? सच में भगवान अरहंत देव का मार्ग प्राप्त होना जीवों को बहुत दुर्लभ है।" अहो आश्चर्य ! अब चौथे दिन तो मथुरा के विशाल प्रांगण में साक्षात् तीर्थंकर भगवान प्रकट हुए। अद्भुत समवसरण की रचना, गंधकुटी जैसा दृश्य और उसमें चतुर्मुख सहित विराजमान तीर्थकर भगवान। लोग फिर दर्शन करने दौड़े। राजा ने सोचा - इस बार तो तीर्थंकर भगवान आये हैं, इसलिए रेवती रानी अवश्य जायेगी। परन्तु रेवती रानी ने कहा - "हे महाराज ! अभी इस पंचम काल में तीर्थंकर कैसे ? भगवान ने इस भरतक्षेत्र में एक कालखण्ड में चौबीस तीर्थंकर होने का ही विधान कहा है और वे ऋषभ से लेकर महावीर पर्यंत चौबीस तीर्थंकर मोक्ष चले गये हैं। यह पच्चीसवाँ तीर्थकर कैसा ? यह तो किसी कपटी का मायाजाल है। मूढ़ लोग देव के स्वरूप का विचार करते नहीं और एक के पीछे एक दौड़े चले जा रहे हैं।" बस, परीक्षा हो चुकी। विद्याधर राजा को निश्चय हो गया कि रेवती रानी की जो प्रशंसा श्री गुप्ताचार्य ने की थी वह यथार्थ ही है। यह तो सम्यक्त्व के सर्व अंगों से शोभायमान है। क्या पवन से कभी मेरु पर्वत हिलता है ? नहीं, उस सम्यग्दर्शन में मेरु जैसा अकम्प सम्यग्दृष्टि जीव कुधर्म रूपी पवन से जरा भी डिगता नहीं, देव-गुरु-धर्म सम्बन्धी मूदता उसे होती नहीं, उनकी उचित पहिचान करके सच्चे वीतराग देव-गुरु-धर्म को ही वह नमन करता है। रेवती रानी की ऐसी दृढ़ धर्मश्रद्धा देखकर विद्याधर सजा चन्द्रसेन को बहुत प्रसन्नता हुई, तब अपने असली स्वरूप में प्रगट होकर उसने कहा, "माता ! मुझे क्षमा करो। चार दिन से इन ब्रह्मा, विष्णु, महादेव, तीर्थंकर इत्यादि का इन्द्रजाल मैंने ही खड़ा किया था। पूज्य श्री गुप्ताचार्य महाराज ने आपके सम्यक्त्व की प्रशंसा की थी, इसलिए आपकी परीक्षा करने के लिए ही मैंने यह सब किया था। अहा ! धन्य है आपके अमूढदृष्टि अंग को, हे माता ! आपके सम्यक्त्व की प्रशंसापूर्वक श्री गुप्ताचार्य महाराज ने आपके लिए धर्मवृद्धि का आशीर्वाद भेजा है।" अहो ! मुनिराज के आशीर्वाद की बात सुनते ही रेवती रानी को अपार हर्ष हुआ। हर्ष से गद्गद होकर उन्होंने यह आशीर्वाद स्वीकार किया और जिस दिशा में मुनिराज विराजित थे उस तरफ सात पाँव चल कर परम भक्ति से मस्तक नवा कर उन मुनिराज को परोक्ष नमस्कार किया।
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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