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________________ आराधनासमुच्चयम् ०३११ रेवती रानी भरत क्षेत्र के मध्यस्थ विजयार्ध पर्वत पर रहने वाले विद्याधरों के स्वामी राजा चन्द्रसेन संसार - शरीर-भोगों से विरक्त होकर राज्य-भार पुत्रों को सौंपकर सर्व तीर्थों की वन्दना करते हुए दक्षिण देश में आये। वहाँ उन्होंने गुप्ताचार्य मुनिराज की वन्दना करके क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण की। एक दिन उन्होंने मथुरा की यात्रा करने का विचार किया । दक्षिण मथुरा नगरी का राजा वरुण था, उनकी रानी का नाम रेवती था। चन्द्रसेन नामक क्षुल्लक महाराज ने मथुरा जाने की इच्छा गुप्ताचार्य के समक्ष प्रगट की और आज्ञा मांगी तथा वहाँ पर विद्यमान संघ के लिए कोई सन्देश देने के संबंध में पूछा | आचार्यदेव ने कहा कि रत्नत्रय __ में रत श्रुतसागर मुनिराज को वात्सल्य पूर्वक 'नमोस्तु तथा सम्यक्त्वशालिनी रेवती रानी को धर्मवृद्धिपूर्वक आशीर्वाद कहना। ___ इस प्रकार आचार्यदेव ने श्रुतसागर मुनिराज को नमोस्तु तथा रेवती रानी को धर्मवृद्धि पूर्वक आशीर्वाद कहा, परन्तु ग्यारह अंग के पाठी भव्यसेन को कुछ भी नहीं कहा, इस पर चन्द्रसेन को बहुत आश्चर्य हुआ, फिर भी आचार्य महाराज को स्मरण कराने के उद्देश्य से उसने पूछा - "क्या अन्य भी किसी को कुछ कहना है ?" परन्तु आचार्यदेव ने इस पर विशेष कुछ नहीं कहा। इससे चन्द्रसेन को ऐसा लगा कि इसमें कोई गुप्त रहस्य है, इसका निर्णय वहाँ जाकर ही होगा। गुरु का आशीर्वाद लेकर चन्द्रसेन मथुरा पहुंचे तथा सर्व प्रथम ज्ञान, ध्यान एवं तप में लवलीन श्रुतसागर मुनिराज के दर्शन किये और भक्तिपूर्वक गुप्ताचार्य मुनिराज का नमोस्तु कहा। श्रुतसागर महाराज ने वात्सल्य भाव से प्रेरित होकर प्रति नमोस्तु किया। उनका हृदय गद्गद हो गया। तदनन्तर वह चन्द्रसेन ब्रह्मचारी का रूप धारण कर भव्यसेन मुनि के समीप पहुंचा और उनको नमोस्तु कहा, परन्तु भव्यसेन ने दृष्टि उठाकर भी नहीं देखा और न आशीर्वाद दिया। ___ उनकी क्रिया देखकर चन्द्रसेन ने जान लिया कि यह वास्तव में अभव्यसेन है, फिर भी इसकी परीक्षा करनी चाहिए। दूसरे दिन जब भत्र्यसेन शुचि करने के लिए जंगल में जाने लगे तब चन्द्रसेन उनका कमण्डलु लेकर उनके पीछे-पीछे चलने लगा तथा उनके साथ वार्तालाप करके 'उनके समान है', ऐसा विश्वास दिला दिया। कुछ दूर जाने के बाद चन्द्रसेन ने अपनी विद्या के बल से सारे मार्ग को हरितांकुर से व्याप्त कर दिया । परन्तु भव्यसेन मुनि उस अंकुरित भूमि पर निःशंक होकर चलने लगे। चन्द्रसेन ने उनके कमण्डलु का पानी सुखा दिया और सामने निर्मल जल से भरे हुए एक तालाब की रचना कर दी। भव्यसेन मुनि ने उस तालाब से अप्रासुक पानी उपयोग में ले लिया। यद्यपि वे शास्त्र पढ़ते थे फिर भी शास्त्रानुसार उनका
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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