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________________ आराधनासमुच्चयम् ३१० नहीं होती, परन्तु देह की दृष्टि होती है। अरे चमड़े के शरीर से ढका हुआ आत्मा अन्दर सम्यग्दर्शन के प्रभाव से शोभायमान हो रहा है, वह प्रशंसनीय है। राजा उद्दायन की यह उत्तम बात सुनकर देव बहुत प्रसन्न हुआ और उसने राजा को अनेक विद्यायें दी, वस्त्राभूषण दिये। अज्ञानीजन के चित्त में विस्मय उत्पन्न करने वाले, मिथ्यादृष्टियों द्वारा निर्मित रसायनादिक शास्त्रों को देखकर वा सुनकर उनमें मूढ़ भाव से धर्मबुद्धि करके उनके प्रति भक्ति या प्रीति नहीं करना अमूढदृष्टित्व है। लौकिक, वैदिक, सामाजिक और अन्यदेव मूढ़ता के भेद से मूढ़ता चार प्रकार की है, जिसका समावेश तीन प्रकार की मृढ़ता में किया है। ये जगहें पढ़ता सम्यग्दर्शन की घातक हैं। इन मूढ़ताओं से मन का रहित होना अमूढदृष्टि है। यह अमूढदृष्टि अंग निश्चय और व्यवहार के भेद से दो प्रकार का है। उपरिकथित चार प्रकार की मूढ़ता का त्याग करना वा कुगुरु, कुदेव और कुधर्म की मन, वचन, काय से प्रशंसा, स्तुति, सेवा आदि नहीं करना अर्थात् कुगुरु, कुदेव, कुधर्म में मन से सम्मत नहीं होना, वचन से स्तुति नहीं करना और काय से सराहना नहीं करना व्यवहार अमूढदृष्टि अंग है। व्यवहार अमूढ़दृष्टि गुण के प्रसाद से जब अंतरंग और बहिरंग तत्त्व का निश्चय हो जाता है, तब जीव संपूर्ण मिथ्यात्व, रागादि शुभाशुभ संकल्प - विकल्पों में इष्ट बुद्धि को छोड़कर त्रिगुप्ति से विशुद्ध ज्ञान दर्शन स्वभावी निजात्मा में निश्चल अवस्थान करता है। चेतयिता समस्त विभाव भावों में अमूढ़ होकर अपने आप में लीन होता है, यह निश्चय अमूढत्व है। सम्यग्दृष्टि की प्रत्येक विचारणा और प्रवृत्ति विवेकपूर्ण होती है, उसने अपने जीवन का जो प्रशस्त लक्ष्य नियत कर लिया है, उसकी ओर आगे बढ़ने में सहायक विचार और व्यवहार को ही वह अपनाता है। वह किसी का अंधानुकरण नहीं करता, अपितु सोच-विचार कर प्रत्येक कार्य करता है। क्योंकि देव, गुरु और धर्म के विषय में भ्रमपूर्ण या विपरीत धारणा होने से मिथ्यात्व की उत्पत्ति होती है। मानव अज्ञानवश यह समझने में असमर्थ हो जाता है कि आराध्य देव कैसा पावन, पवित्र, संपूर्ण ज्ञानमय और सर्वथा निर्विकार होना चाहिए। शास्त्र का लक्षण क्या है ? शास्त्र का अर्थ किस प्रकार लगाना चाहिए ? शास्त्रकथित अर्थ पर कैसा दृढ़ विश्वास होना चाहिए ? गुरु का स्वरूप कैसा है और धर्म का स्वरूप क्या ___ यदि देव और शास्त्र निर्दोष न हो तो प्राणियों की क्रिया भी वास्तविक फल को नहीं देती, जैसे विजातियों में कुलीन संतान की प्राप्ति नहीं होती। अतः देव, धर्म, शास्त्र और गुरु के विषय में मूढ़ नहीं बनना, जैसे रेवती रानी ब्रह्मा, विष्णु, शिव और जिन भगवान के रूप में देव के पधारने पर भी मूर्ख नहीं बनी।
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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